Book Title: Barsanupekkha Author(s): Kundkundacharya, Vishalyasagar Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 9
________________ बाराणु विवरखा (११) धर्मानुप्रेक्षा:- संसार मय विषम दुर्ग इस भव मन में भ्रमण करते हुए मैने बड़ी मुश्किल से जिनवर कथित प्रधान धर्म प्राप्त किया है। इस प्रकार चिंतवन करना धर्मानुप्रक्षा है। . (१२) बोधि दुर्लभ भावना:- अनन्त संसार में जीवों को मनुष्य पर्याय दुर्लभ है। जैसे लवण समुद्र में युग अर्थात् जुवां और समिला अर्थात् सैल का संयोग दुर्लभ है। उत्तम देश कुल में जन्म, रूप, आयु, आरोग्य, शक्ति विनय धर्मश्रवण ग्रहण बुद्धि और धारणा ये भी इस लोक में दुर्लभ हैं। ऐसी भावना बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा हैं। इस प्रकार ये बारह अनुप्रेक्षायें वैराग्य बुद्धि के लिए वायु के तुल्य हैं। जैसे जलती हुयी अग्नि की वृद्धि में वायु कारण होती है। आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी के प्राप्त ग्रन्थों में यह प्रथम ग्रन्थ हैं। जिसमें आचार्य श्री ने अपना नाम उल्लेखित किया है। इदि णिच्छयववहारं जं भणियं कुंद मुणिणाहे । जो भावइ सुद्धमणो सा पावइ परमणिठवाणं ॥९९॥ वा.अनु. अर्थात् इस प्रकार से मुनियों के नाथ/ नायक आचार्य श्री कुंद-कुंद ने निश्चय और व्यवहार नव से बारह अनुप्रेक्षाओं को कहा है उसे जो शुद्ध मन से भाता है चिंतन करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त करता है। इस प्रकार महामनीषी आचार्य महाराज ने वारसाणु पेक्खा ग्रन्थ का का सृजन कर भारतीय साहित्य को समृद्धशाली बनाया छतरपुर में ग्रीष्म वाचना के समय आचार्य श्री हम लोगों को वारसाणु पेक्खा ग्रन्थ का स्वाध्याय कर रहे थे तभी मेरी भावना बन चुकी थी कि ऐसे महान ग्रन्थ की सरल शब्दार्थ भावार्ध सहित प्रकाशन होना चाहिए। इस भावना को लेकर दि. जैन तीर्थ स्थली करगुवा (झाँसी) में चातुर्मास के समय मैने आचार्य श्री के चरणों में पत्र के माध्यम से प्रार्थना प्रेक्षित की कि भिण्ड वर्षा योग में आप ग्रन्थ का सरल भाषा में अनुवाद करने की कृपा करें। आचार्य श्री ने प्रार्थना स्वीकार कर हम लोगों पर असीम कृपा की। यह उनकी करुणा हम लोगों के प्रति है। साथ ही मुझे आज्ञा दी कि विशुद्ध सागर प्रस्तावना लिखें ऐसे महान ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखना बहुत बड़ी बात है। पर आचार्य श्री की कृपा से लिखना संभव हो सका उसमें जो कमी है वो मेरी है जितनी भी अच्छाइयां है। वे सब गुरू देव की है।Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 108