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प्रथमोऽध्याय
मोक्षमूल ज्ञान
[ अर्हद्गीता के पहले अध्याय में सर्व प्रथम श्रुतदेवता की स्तुति की गई है । अर्हत् शासन की यह सरस्वती निर्दोष है, सुप्रकाशांगी है । यही वर्णमातृका एवं परा मातृका का स्वरूप है । द्रव्यानुयोग, कथानुयोग, चरण करणानुयोग एवं गणितानुयोग आदि चार अनुयोगो से युक्त होने के कारण यह चार भुजाओं वाली है । आत्मानुशासन के कारण यह ब्राह्मी है । उसका सद्ज्ञान ब्रह्मस्वरूप है और यह आत्मा ही ब्रह्मात्मा, परमात्मा है ।
सरस्वती वन्दना अथवा श्रुतज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान की एकता का प्रतिपादन करने के पश्चात् यह बताया गया है कि यह अर्हद्गीता सकलागम बीज मंत्र एवं सकल शास्त्रों का रहस्यभूत शास्त्र है। इसके ऋषि गौतम, छन्द - अनुष्टुप, देवता - सर्वज्ञ जिन हैं। मनुष्यत्व प्राप्त कर धर्माराधन मनुष्यका कर्त्तव्य है, यही गीता का बीज है, आत्मा में वैराग्य भावों का उदय इसकी शक्ति है । संसारी जीवभी इसके मनन चिन्तन से मुक्त हो जायँ, यह उसका ' कीलक' है । तत्पश्चात् अर्हद्गीता का आत्मरक्षापरक पंजर स्वरूप बताया गया है । आत्मरक्षा पैंजर रूप की कल्पना के पश्चात् यह बताया गया है कि यह गीता ज्ञान कवच रूप है, कर्म विनाशन इसका फल है ।
गीता में जहाँ अर्जुन भगवान कृष्ण से अपनी शंकाओं का समाधान पूछते हैं वही अर्हद्गीता में इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर से अपनी समस्याओं का निराकरण पूछते हैं । इस प्रथम अध्याय में गौतम स्वामी मनको वश में करने के उपाय पूछते हैं एवं भगवान ने उसका मूल ज्ञान बताया है। ज्ञान से वैराग्य एवं वैराग्य से शिवत्व की प्राप्ति होती है, यही परमेष्ठि पद है । ]
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श्री अर्हष्गीता
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