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अध्याय चतुर्थः
ऐन्दव्यपि कला वृद्धिं लभतेऽनुक्रमाद्यथा । तथेह तत्त्वविद्यापि ज्ञानिनां बाह्यहेतुभिः॥१॥
अन्वय-यथा ऐन्दवी कला अपि अनुक्रमात् वृद्धिं लभते तथा इह शानिनां तत्त्वविद्यापि बाह्य हेतुभिः ( वृद्धिं लभते)॥१॥
अर्थ-जिस प्रकार चन्द्रकला क्रमशः बढ़ती रहती है वैसे ही ज्ञानियों की तत्त्वविद्या मी बाह्य कारणों से पुष्ट होती हुई बढ़ती है।
अज्ञानहेतवः सर्वेऽप्यधर्मा विषया यथा । तथा धर्मो ज्ञानबीजं दयादानादिकाः क्रियाः ॥२॥
अन्वय-यथा अज्ञानहेतवः सर्वे अपि विषया अधर्माः तथा दयादानादिकाः क्रियाः ज्ञानबीजं धर्मः ॥२॥
अर्थ-जिस प्रकार अज्ञान के कारणभूत सभी विषय अधर्म है उसी प्रकार दया दान तप आदि क्रियाएं ज्ञान की बीज हैं एवं धर्म हैं।
आयुघृतं यशस्त्यागः कार्यकारणयोगतः । पूजाध्ययनदीक्षादि-धर्मसाध्याय साध्यते ॥ ३॥
अन्वय-कार्यकारणयोगतः घृतं आयुः त्यागः यशः (तथैव) पूजाध्ययनदीक्षादिः धर्मसाध्याय साध्यते ॥३॥
अर्थ-कार्य कारण के योग से घी को आयु एवं त्याग को यश की संज्ञा दी जाती है वैसे ही पूजा अध्ययन एवं दीक्षादि धर्म सिद्धि के लिए किए जाते हैं।
खाध्यायः स्याद् गुरूपास्तेः शास्त्राध्ययनं वाचनैः । हेयोपादेयबोधोऽस्मात्ततः कैवल्यसम्पदः ॥ ४ ॥ .
अर्हद्गीता
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