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अर्थ-जिस प्रकार अमि के ताप से मालपुए आदि विभिन्न खाद्य पदार्थों को बनाया जाता है जैसे कर्ण को सूर्य से सिद्धि प्राप्त हुई वैसे ही जीव को भी तपोबल से शुद्धि होकर स्वरूप रमणता की प्राप्ति होती है।
कायशुद्धिर्बाह्य तपो योगाद्विनयसाधनात् । वाक्शुद्धिर्मनसः शुद्धिः स्वाध्यायादेव केवलात् ॥ ४ ॥
अन्वय-बाह्यतपोयोगात् काय शुद्धिः विनयसाधनात् वाक्शुद्धिः मनसः शुद्धि केवलात् स्वाध्यायात् एव ॥४॥
अर्थ-बाह्य तप के बल से शरीर की शुद्धि होती है, विनय व्यवहार से वाणी की शुद्धि होती है पर मन की शुद्धि तो केवल स्वाध्याय (आन्तर तप) से ही होती है ।
त्रेधा शुद्धयात्मनः शुद्धिरात्मतत्वं तदुत्तमम् । आत्मतत्त्वावबोधाय शेषतत्त्वप्ररूपणा ॥ ५ ॥
अन्वय-त्रेधा शुद्धया आत्मनः शुद्धिः तत् उत्तमं आत्मतत्त्वं आत्मतत्त्वावबोधाय शेषतत्त्वप्ररूपणा ॥५॥
अर्थ-इन तीनों प्रकार की कायिक वाचिक एवं मानसिक शुद्धियों से आत्मा की शुद्धि होती है। ( बाह्य तप और आंतर तप ) स्वतः उत्तम आत्म तत्त्व है। शेष तत्त्वों का विवेचन-कथन तो आत्म तत्त्व के ज्ञान के लिए ही किया गया है। अर्थात् अनेक तत्त्वों का जो निरुपण किया गया है वह सर्वका सार है आत्म शुद्धि और तप आत्म शुद्धि का साधन है।
प्रसिद्धिर्नवतत्त्वानां बहुधा जैनशासने । अन्यथा तत्त्वदशकं प्रतिपक्षपरीक्षया ॥ ६ ॥
अन्वय-जैनशासने बहुधा नवतत्त्वानां प्रसिद्धिः अन्यथा प्रतिपक्ष परीक्षया तत्त्वदशकं ॥ ६॥
एकोनविंशोऽध्यायः
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