Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 221
________________ अर्थ - यह ब्रह्म जगत् में विद्यमान पदार्थों का स्वयं शाश्वत कर्ता है यह एक है लेकिन विवर्तों से अनेक है यह सर्वगत हैं, आत्मवश है एवं उच्च है 1 लोकालोकमये ज्ञेये ज्ञातः प्राधान्यमिष्यते । प्रत्यक्षस्तनुवाक्चित्तः कर्ताऽयं नापरो यतः ॥ ४ ॥ अन्वय-लोकालोकमये ज्ञेये ज्ञातुः प्राधान्यं इष्यते तनुवाक्चित्तः प्रत्यक्षः अयं कर्ता यतः अपरः न ॥ ४ ॥ अर्थ - ज्ञेय ऐसे लोक और अलोक में सर्वत्र ज्ञाता की ही प्रधानता मानी जाती है । मन वाणी एवं काया से साक्षात् इस कर्ता से दूसरा कोई कती नहीं है । विवेचन - आत्मा ज्ञाता है और जगत् ज्ञेय । ज्ञाता न हो तो ज्ञेय अर्थशून्य हो जाता है इसलिये ज्ञाता प्रधान है । जो ज्ञाता है वही देहधारी प्रत्यक्ष कर्ता भी है। 1 तन्वाद्यैरिहकर्मात्तैर्भावैर्यः सर्वपुद्गलान् । स्वीकृत्यानन्तशः सर्वां चकार जगतः स्थितिम् ॥ ५ ॥ अन्वय-यः कर्मात्तैः तन्वाद्यैः भावैः अनन्तशः सर्वपुद्गलान् स्वीकृत्य जगतः सर्वा स्थितिं चकार ॥ ५॥ अर्थ - (और) इसी आत्मा ने (कर्ता के रूप में) कर्माधीन शरीरादि भावों के द्वारा अनन्त बार सभी पुद्गलों को स्वीकार कर जगत की सारी स्थिति को बनाया हैं I क्रियां विना न कर्म स्या - नकर्तारं विना क्रिया । ~ भोक्ता क्रियाफलस्यैष चेतनोऽस्ति सनातनः ॥ ६ ॥ १९६ अन्वय- क्रियां विना कर्म न स्यात् कर्तारं विना क्रिया न । क्रियाफलस्य एष चेतनः सनातनः भोक्ता अस्ति ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only अर्हद्गीता www.jainelibrary.org

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