Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 231
________________ एकोऽप्यकारस्तत्त्वेन चतुर्विंशतिभेदभाक् । तथा स्वरूपादेकस्मिन् जिने सिद्धेऽप्यनेकता ॥ १० ॥ अन्वय-एकः अपि अकार तत्त्वेन चतुर्विंशतिभेदभाक् भवति तथा स्वरूपात् एकस्मिन सिद्धे जिने अपि अनेकता ॥१०॥ अर्थ-जिस प्रकार अकार एक ही है पर स्पर्शों से मिलकर उसमें २४ भेद हो जाते हैं जैसे क ख ग घ आदि में अकी मिलावट। वैसे ही स्वरूप से एक होते हुए भी सिद्ध और जिनेश्वर में भी अनेकता आरोपित की जाती है। अवताराः ह्यसंख्येया एकस्यापि हरेर्यथा। ब्रह्मविष्णुमहेशाद्या एवमर्हन्ननेकधा ॥ ११ ॥ अन्धय-यथा एकस्यापि हरेः ब्रह्मविष्णुमहेशाद्याः असंख्येयाः अवताराः भवन्ति एवं अर्हन् अनेकधा (भवति ) ॥११॥ अर्थ-जिस प्रकार एक ही हरि के ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि असंख्य अवतार होते हैं वैसे ही एक ही अर्हत् में अनेकत्व होता है । अर्थात् वास्तव में अर्हत भी असंख्य होते है । एकवर्षे यथा पक्षा-श्चतुर्विंशतिसंख्यया । राशिचक्रेऽथवा होरा तत्त्वानि मंत्रशासने ॥ १२ ॥ अन्वय-यथा एकवर्षे चतुर्विंशति संख्यया पक्षाः भवन्ति अथवा राशिचक्रे होरा चतुर्विंशति तथा मंत्रशासने तत्त्वानि अपि चतुर्विंशति भवन्ति ॥ १२॥ अर्थ-जिस प्रकार एक वर्ष में २४ पक्ष और ज्योतिष शास्त्र में २४ होराएं होती है वैसे मंत्र शास्त्र में भी २४ तत्त्व होते हैं। (मंत्र शास्त्र में २४ विद्या देवियों की प्रतिष्ठा है)। *"नाचं विना व्यञ्जनस्य सम्यक् उच्चारणं भवति"-पाणिनि । २०६ अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258