________________ अन्वय-अतिविष्णुः उ इति ब्रह्मा मे शिवः त्रयीमयः ॐकारः परमं ब्रह्मः तदर्थिभिः ध्येयः गेयश्च // 17 // अर्थ-अ से विष्णु उ से ब्रह्मा म से शिव इस प्रकार त्रिस्वरूपास्मक यह ओंकार परम ब्रह्म स्वरूप है। इस ब्रह्म को प्राप्त करने की इच्छा वाले को इस ॐ कार का ध्यान तथा गान करना चाहिए। .. अनति- वाप्नोति-वेवेष्टि अ (ध्रौव्य) विष्णु - अवति- रक्षति, पालयति / उ- उत्पादयति जनयति ( उत्पाद) ब्रह्मा म- मारयति संहरति (व्यय) शिव अकार अततीत्यात्मा सपश्चमोपयोगतः। उतोमिति महानन्दे शिवो बिन्द्वाकृतिर्भवेत् // 18 // अन्वय-अ अततीत्यात्मा उतः सपञ्चमोपयोगतः म इति महानन्दे बिन्दु आकृतिः शिवः भवेत् // 18 // अथे-यह आत्मा व्यापक (गतिमान) होने के कारण अकार स्वरूप है एवं वह पांचवे स्वर उ के योग से ओ बनता है / म महान् आनन्द का सूचक ॐ के ऊपर रही हुई बिन्दुरूप आकृति शिवस्वरूप है। ___ अर्थात् अकार रूप आत्मा पंचम केवल ज्ञान से निराकार होकर महानन्द में विचरण करती है इस अ+उ+ 0 के संयोग से बना यह ॐ साक्षात् शिवस्वरूप है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल, यह पांच ज्ञान हैं। अर्हपदे व्यञ्जनेन वर्जितेप्यों तदव्ययम् / सिद्धाभिधायकं ध्यायन् शिव एव निरंजनः // 19 // अन्वय-अर्हपदे व्यअनेन वर्जिते अपि ओम् तद् अव्ययं सिद्धाभिधायकं ध्यायन् शिव एव निरंजनः / / 19 / / पञ्चविंशोऽध्याय: 233 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org