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अर्थ-अ अर्हद् वाचक है उ गुरुवाचक है मकार में मुनिधर्म है इन अ उ म को मिलाने से इनके ऊपर रही हुई बिन्दु ही सुवृत्त आत्मा अर्थात् सिद्ध है।
अर्हन्नपरिहन्तासा-ऽवरूहश्चेति नामसु । क्रमात् अ इ उ इत्येते प्राकृते भेदकाः स्वराः ॥ ११ ॥
अन्वय-असौ अर्हत् अपरिहन्ता अरूहः च नामसुअ इ उ इत्येते क्रमात् प्राकृते भेदकाः स्वराः ॥ ११ ॥
अर्थ-अर्हन अरिहन्त और अरूह इन तीनों नामों में अ इ उ तीन भेद वाले स्वर प्राकृत भाषा में क्रमशः आ जाते हैं क्योंकि प्राकृत में ये तीन नाम अरहा, अरिहा एवं अरूहा होते हैं। प्राकृत में ऋषि के ऋकार दो रूप में इसी या रिसी में परिवर्तन दिखाई देते हैं।
अइउणिति तत्सूत्रं कृतं पाणिनिनादिमम् । एतद्योगेन सिद्धत्व-मोंकारेण निरूप्यते ॥१२॥
अन्वय-अ इ उ ण् इति आदिम सूत्रं पाणिनिना कृतम्। एतद्योगेन ओंकारेण सिद्धत्वं निरूप्यते ॥ १२॥
अर्थ-अ इ उ ण् वैसा प्रथम सूत्र पाणिनि ने (व्याकरण में) बताया है। इन तीनों के योग से बने ओंकार से सिद्धत्व का निरूपण किया जाता है।
अ इत्यस्मादधोलोकः ऊ इत्यूप्रस्थसूचकः । मे मर्त्यलोकस्तिर्यग्भूः सुवृत्तस्तत ओमिति ॥१३॥
अन्वय-अस्मात् अ इति अधोलोकः ऊ इति उर्ध्वस्थसूचकः मे मर्त्यलोकः तिर्यग्भूः, सुवृत्तः ततः ओमिति ॥ १३ ॥
अर्थ-ॐ कार में त्रिलोक व्याप्त है। अ से पातालादि अधोलोक ऊ से स्वर्गापवर्गादि ऊर्ध्वलोक म से मर्त्यलोक एवं तिर्यलोक है। इन तीनों वर्गों के संयोग से ॐ की निष्पत्ति होती है।
पञ्चविंशोऽध्याय
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