Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 254
________________ अर्थ-शास्त्रादि व्यवहार के लिए जिस प्रकार सर्व प्रथम संज्ञा (नाम) की आवश्यकता कही गई है वैसे ही आत्मार्थी को देव गुरु और धर्म के नाम का सबसे पहले श्रवण करने की आवश्यकता रहती है। ज्ञानिभिः पूर्वजैर्नाम्नो निक्षेपः प्रथमः कृतः । नाम्ना नैर्मल्यमापन्नः स्थापनाद्यपि मन्यते ॥४॥ अन्वय-पूर्वजैः शानिभिः प्रथमः नाम्नः निक्षेपः कृतः। नाम्ना निर्मल्यं आपन्नः तथैव स्थापनादि अपि मन्यते ॥४॥ .. अर्थ-पूर्व ज्ञानियों ने धर्माचरण में सर्व प्रथम नाम का ही निक्षेप किया है क्योंकि नाम से ही निर्मलता की प्राप्ति होती है एवं स्थापना आदि भी नाम के अनुसार ही मानी जाती है। नाम्नि वा स्थापनायां यस्तादात्म्यं हृदि चिन्तयेत् । दृष्टे बिम्बे श्रुते नाम्नि तुष्टः श्रद्धालुरुत्तमः ॥५॥ अन्वय-यः नाम्नि वा स्थापनायां हृदि तादात्म्यं चिन्तयेत् नाम्नि श्रुते बिम्बे दृष्टे सति उत्तमः श्रद्धालुः तुष्टः (भवति)॥५॥ अर्थ-नाम निक्षेप अथवा स्थापना निक्षेप द्वारा जो व्यक्ति अपने हृदय में तादात्म्य भावसे चिन्तन करे तो नाम सुनने पर अथवा जिन बिम्ब देखने पर वह उत्तम श्रद्धालु और इच्छा परिपूर्ण होनेसे (अत्यन्त) सन्तुष्ट हो जाता है। तन्नामचरितश्रुत्या तदेकाग्रेण तन्मना । तद्वयानभावनाज्जंतु-नूनं ताद्रप्यमश्नुते ॥ ६ ॥ अन्वय-एकाग्रेण तन्मना तन्नाम चरित श्रुत्या तद् ध्यानभावनात् जन्तुः नूनं ताद्प्यं अश्नुते ॥६॥ अर्थ-एकाग्र भावना से एवं तन्मय होकर उन आत्म ब्रह्म के नाम तथा चरित्र के सुनने से तथा उनका ध्यान और भावना करने से प्राणी निश्चय ही उनके ही रूप को प्राप्त कर लेता है। पञ्चविशोऽध्यायः २२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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