Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 252
________________ 5 । पञ्चविंशोऽध्यायः परमेष्ठिस्वरूप ॐकार संकिर्तन [श्री गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा है कि कैवल्य सिद्धि के लिए सर्व प्रथम कौनसा कर्म करना चाहिए । श्री भगवान ने उत्तर दिया कि गुरु सेवा प्रथम कर्तव्य है क्योंकि उनके वचनों में आत्म जागरण की शक्ति होती है। शास्त्रादि व्यवहार के लिए जिस प्रकार सर्व प्रथम नाम की आवश्यकता रहती है वैसे ही आत्मार्थी को देव गुरु एवं धर्म के नाम का श्रवण करना चाहिए । पूर्वे ज्ञानियों ने भी धर्माचरण में सर्व प्रथम नाम का ही निक्षेप किया है क्योंकि नाम अथवा स्थापना द्वारा व्यक्ति हृदय में तादात्म्य का चिन्तन करता है एवं तद्रूप को प्राप्त कर लेता है । नाम संकीर्तन में संक्षेप में 'ॐ कार' का ध्यान करना चाहिए क्योंकि इसके 'अ' में अर्हन् एवं सिद्ध, 'आ' में आचार्य, 'उ' में उपाध्याय तथा 'म' में मुनि रूप पंच परमेष्ठि का स्वरूप कहा गया है। इस प्रकार नाना विवेचनों से 'ॐ' में पंच परमेष्ठि का स्वरूप प्रतिष्ठित किया गया है। 'ॐ' में अधोलोक, उर्चलोक तथा मर्त्यलोक समाये हुए हैं एवं ॐ में ही भक्ति उपलब्धि तथा पंच महाव्रत समाये हुए हैं। इसी 'ॐ' के 'अ' में विष्णु, 'उ' में ब्रह्मा व 'म' में शिव समाये हुए हैं अतः ब्रह्म की प्राप्ति हेतु 'ॐकार' का ध्यान करना चाहिए। बिन्दु समेत 'ॐ कार' में मुक्तावस्था-रूप सिद्धावस्था निहित है और यह साक्षात् परमेश्वर है। ] । E पञ्चविंशोऽध्यायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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