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गुरु के आदेश का अतिक्रमण करने पर तथा उनके प्रति वक्रता और कुटिलता के भाव रखने पर प्राणियों को दुःख ही पहुँचता है।
गुरुः पोतो दुस्तरेऽब्धौ तारकः स्याद्गुणान्वितः । साक्षात्पारगतः श्वेतपटरीतिं समुन्नयन् ॥ २० ॥
अन्वय-साक्षात् पारगतः श्वेतपटरीतिं समुन्नयन् गुणान्वितः गुरूः दुस्तरे अब्धौ पोतः तारकः च स्यात् ॥२०॥
अर्थ-साक्षात् पारगाभी व श्वेताम्बर धर्म की उन्नति करने वाले गुणों से युक्त गुरु दुस्तर संसार सागर में पोत रूप एवं तारक रूप होते हैं ।
स्यादक्षरपदप्राप्तिद्वोधपि गुरुयोगतः । गुरुरूपेण भूभागे प्रत्यक्षः परमेश्वरः ॥ २१ ॥
अन्वय-गुरूयोगतः द्वेधा अपि अक्षरपदप्राप्ति स्यात् भूभागे गुरुरूपेण प्रत्यक्ष परमेश्वरः ॥२१ ॥
अर्थ-गुरु के मिलने से शब्द ब्रह्म तथा परब्रह्म दोनों प्रकार के ब्रह्म की सहज ही प्राप्ति होती है। इस संसार में गुरु प्रत्यक्ष रूप में परमेश्वर है।
॥ इति श्री अहंद्गीतायां चतुर्विंशोऽध्यायः॥
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अर्हद्गीता
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