Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 249
________________ यश्चाचार्यमुपाध्यायं श्रुताचारविनायकम् । निन्देत् स पापश्रमणो जमालिकूलवालवत् ॥ १३ ॥ अन्वय-यः श्रुताचारविनायकं आचार्य उपाध्यायं च वा निन्देत् सः जमालिकूलवालवत् पापश्रमणः भवति ।। १३ ॥ अर्थ-जो श्रुत धर्म के प्रस्तोता उपाध्याय तथा आचार में मुख्य आचार्यों की निन्दा करता है वह जमालि और कूलवाल की तरह पापात्मा साधु होता है। गुरो दृष्टिः शुभं भावं समुन्नयति निश्चयात् । तेनैव गणधर्मोऽयं भवेदापंचमारकम् ॥ १४ ॥ अन्वय-निश्चयात् गुरोः दृष्टि शुभं भावं समुन्नयति तेन एव अयं गणधर्मः। आपंचमारकम् भवेत् ।।१४॥ अर्थ-निश्चय रूप से गुरू की कृपा दृष्टि आत्मा में शुभ भाव की अभिवृद्धि करती है, इसीलिए यह धर्मसंघ पंचम आरे तक विद्यमान रहेगा। गुरुर्नेत्रं गृरूदीपः सूर्याचन्द्रमसौ गुरुः । गुरुर्देवो गुरुः पन्था दिग्गुरुः सद्गतिगुरुः ॥ १५ ॥ __ अन्वय-गुरुः नेत्रं गुरुः दीपः सूर्याचन्द्रमसौ गुरुः, गुरुः देवः, गुरुः पन्थाः, दिक् गुरुःच सद्गति (अपि) गुरुः ॥ १५॥ अर्थ-संसार में गुरु ही नेत्र है, दीप है, गुरु ही सूर्य चन्द्र है, गुरु ही देवता है, गुरु ही सन्मार्ग है, गुरु ही दिग्मण्डल है तथा गुरु ही सद्गति स्वरूप है। नैकाशनस्य भंगः स्या-दुत्थानं कुर्वता नरा । गुरोविनयसिद्धयर्थ सिद्धयर्थी तद्गुरुं भजेत् ॥१६॥ अन्वय-गुरोः विनयसिद्धयर्थ उत्थानं कुर्वता नरा एकाशनस्य भंग न स्यात् । तत् सिद्धयर्थी गुरूं भजेत् ॥१६॥ अहंदगीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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