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अर्थ-यदि कोई गुरू परम्परा से दीक्षा नहीं लेकर स्वयं अपने आप दीक्षा ले लेता है तो उसकी निन्दा भगवती नाम के पांचवे अंग में की गई हैं। क्योंकि धर्म का मूल विनय है और विनय का मूल वह गुरु है ।
अभ्यस्तोऽपि महामन्त्रः स्फुरेन्नैव गुरूं विना । विनये श्रेणिको भिल्ल-स्तापसो वा निदर्शनम् ॥ १० ॥
अन्वय-अभ्यस्तः अपि महामंत्र गुरूं विना न स्फुरेत् विनये श्रेणिकः भिल्लः तापसः वा निदर्शनम् ॥ १०॥
अर्थ-अच्छी तरह साधित महामंत्र भी गुरू के बिना नहीं फलता ह। गुरू के विनय के लिए श्रेणिक राजा अथवा भिल्ल तापस का दृष्टान्त प्रसिद्ध है।
कलाः प्रकाशयन् पूर्व नमेत् किं न कलागुरुम् । शास्त्रैः प्रदेशीयादेशि केशिनानवकेशिना ॥ ११ ॥
अन्वय-पूर्व कलाः प्रकाशयन् कलागुरूं किं न नमेत् । नवकेशिना केशिना शास्त्रैः प्रदेशी इति आदेशि ॥ ११ ॥
अर्थ-सर्व प्रथम कला का प्रकाशन करने वाले कला गुरू को क्यों नहीं नमस्कार किया जाय ? केशी गणधर का शास्त्रों से प्रदेशी राजा ने तथा नवकेशी का आदेशी राजा ने नमस्कार किया।
त्रिः प्रदक्षिणयन्त्येव किं न केवलिनो जिनम् । तीर्थं नमति देवोऽपि देशनासमये स्वयं ॥ १२ ॥
अन्वय-केवलिनः जिनं किं न त्रिःप्रदक्षिणयन्ति एव देशना सयये स्वयं देवः अपि तीर्थ नमति ॥ १२॥
अर्थ-केवलज्ञानी भी क्या जिनेश्वर भगवान की तीन प्रदक्षिणा नहीं करते हैं ? अर्थात् करते हैं। देशना के समय स्वयं भगवान भी तीर्थ को नमस्कार करते हैं। अर्थात् केवली और तीर्थंकरों के व्यवहार में विनय दिखाई देता है।
चतुर्विशोऽध्यायः
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