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अर्थ संसार में लोकालोकात्मक जो वस्तु है वह सत्तारूप से तो एक ही है। उसकी चेतना शक्ति मुख्य है। उस चेतना शक्ति से तत् तत् वस्तुओं में तद्रूपता के कारण उसमें अनेकता दिखाई देती है।
भावैक्यं द्रव्यदृष्टयैव पर्यायात्तदनेकता। द्रव्यक्षेत्रकालभाव-बहुधा पर्यायोदयः ॥ ४ ॥
अन्वय-द्रव्यदृष्ट्या भावैक्यं पर्यायात् अनेकता द्रव्य क्षेत्र काल भावैः बहुधा पर्यायोदयः ॥४॥
अर्थ-द्रव्य नय की दृष्टी से भाव में एकता है पर पर्याय नय की दृष्टि से उसमें अनेकता है। द्रव्य क्षेत्र काल भाव से एक ही सत्तारूप वस्तु में बहुत प्रकार के पर्यायों का उदय होता रहता है।
अर्हत्सु च यदार्हन्त्यं या च सिद्धेऽस्ति सिद्धता । तथा स्वाभावादानक्यं तदैक्यं शाश्वतं स्वतः ॥ ५ ॥
अन्वय-च अर्हत्सुः यत् आर्हन्त्यं सिद्धे या च सिद्धता अस्ति .. तथास्वभावात् आनैक्यं तद् शाश्वतः स्वतः ऐक्यं ॥५॥
अर्थ-और अर्हतों में जो आर्हन्त्य है और सिद्धों में जो सिद्धता है इस प्रकार के (भिन्न ) स्वभाव से इनमें अनेकता दिखाई देती है परन्तु उनमें स्वतः जो (समानरुप) एकता है वह शाश्वत है।
यथा सिद्धे जिने नैक्यं शक्यं श्रीपमेश्वरे ।। यदेकं तदनेकं स्यादिति व्याप्तिविनिश्चयात् ॥ ६ ॥
अन्वय-यथा सिद्धे जिने श्रीपरमेश्वरे ऐक्यं न शक्यं यत् एकं तद् अनेकं स्यात् इति व्याप्तिविनिश्चयात् ॥ ६॥
. अर्थ-जिस प्रकार सिद्धों में तथा परम ऐश्वर्यवान् जिनो में अर्थात् निराकार या साकार में एकता सम्भव नहीं है तथा जो एक है वह अनेक होता है यह निश्चय व्याप्ति देखकर होता है।
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अर्हद्गीता
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