Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 234
________________ अन्वय-षोडषानां स्वर्णवर्णात् पौडपादौ स्वराः जिनाः शेषं वर्गीयपंचमाः यवलाः च जिनाष्टकम् ॥ १८ ॥ अर्थ-वर्णमातृका के आदि के १६ सवर्ण स्वर अ आ इ ई आदि प्रारम्भ के जिनेश्वर हैं शेष प्रत्येक वर्ग के पांचवे अनुनासिक ङ ञ ण न म और य व ल मिलकर शेष आठ जिनेवरों का सूचन करते हैं। आनुनासिक्यधर्मेण स्वरूपममीष्वपि । वर्णभेदेऽहंतामेषां तथोक्ति व्यञ्जनाश्रयाः ॥ १९ ॥ अन्वय-आनुनासिक्यधर्मेण अमीषु अपि स्वररूपम्। एषां अर्हतां वर्णभेदे व्यञ्जनाश्रयाः तथा उक्तिः ॥ १९ ।।। अर्थ-ङ् ञ् ण न् म् में अनुनासिकता होने के कारण इनमें भी स्वररूपता है। इन अर्हतों के नामों में वर्णभेद होने के कारण अलग व्यञ्जनों का आश्रय लेना पड़ता है। प्रायोऽभिप्रायतस्त्वेव-मेकस्याप्यर्हतः स्मृतम् । चतुर्विंशतिसंख्यानं यथा द्वादशता रवेः ।। २० ।। अन्वय-एवं प्रायः अभिप्रायतः तु एकस्य अपि अर्हतः चतुर्विंशति संख्यानं स्मृतं यथा रवेः द्वादशता ।। २० ।। अर्थ-इस प्रकार इन अभिप्रायों से प्रायः ज्ञात होता है कि एक ही अर्हत् भगवान की २४ संख्या बता दी गई है। जिस प्रकार एक ही सूर्य १२ प्रकार का माना जाता है एक ही अर्हत् भी २४ तीथङ्करों के रूप में पूजे जाते हैं। स्वस्वशासनपद्धत्या वर्ण्यतां नकधा प्रभुः । तादात्म्यानन्यरूपत्वादेकः श्रीपरमेश्वरः ॥ २१ ॥ २०९ द्वाविंशतितमोऽध्यायः अ. गी.-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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