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अर्थ-जिनेश्वर भगवान के द्वारा बताए गए योगमार्ग से विष्णु मुनि की तरह अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती है एवं इन्द्रों की समृद्धि भोग और मोक्ष प्राप्त होता है और तीनों जगत भी अवश्य ही वश में हो जाते हैं।
रागो द्वेषश्च संसारकारणं सद्भिरिष्यते। तयोर्विवर्जितो ज्ञाता मुक्तः स परमेश्वरः ॥ १६ ॥
अन्वय-सद्भिः रागः द्वेषः च संसारकारणं इष्यते। तयोः विवर्जितो शाता स मुक्तः परमेश्वरः (च)॥१६॥
अर्थ-सज्जन लोग संसार का कारण राग और द्वेष को मानते हैं। उनसे जो रहित है वही ज्ञाता है वही मुक्त है और वही परमेश्वर है। अर्थात् रागद्वेष मुक्त आत्मा ही परमेश्वर है।
न जन्तुपीडा न वीडा न क्रीडा मैथुनादिकाः । हास्यं न लास्यं नालस्यं स एव परमेश्वरः ॥ १७ ॥
अन्वय-यस्य न जन्तुपीडा न ब्रीडा न मैथुनादिकाः क्रीडा। न लास्यं न आलस्यं (भवति) स एव परमेश्वरः ॥१७॥
___ अर्थ-जिस आत्मा के लिए न जन्तुभय है न लज्जा है न मैथुनादिक सांसारिक क्रियाएं हैं न श्रृंगारादि नृत्य विलास है न हास्य व्यंग्य है न आलस्य है वही परमेश्वर है।
शक्रचयर्धचक्र्यादिर्यश्चान्यः पुरुषोत्तमः । सोऽपि भाविनयापेक्षं प्रत्यक्षः परमेश्वरः ॥ १८ ॥
अन्वय-यः शक्र चक्री अर्द्धचक्री आदि च वा अन्यः पुरुषोत्तमः सः अपि भविनयापेक्षं प्रत्यक्षः परमेश्वरः ॥ १८॥
अर्थ-जो (वर्तमान में) इन्द्र है चक्री है अर्द्धचक्री वासुदेव आदि है या अन्य पुरुषोत्तम रूप है वह भी भावि नय की अपेक्षा से प्रत्यक्ष परमेश्वर ही है। क्योंकि आत्मगुणों के विकास से जो आज इन्द्र २००
अहंद्गीता
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