Book Title: Arhadgita
Author(s): Meghvijay, Sohanlal Patni
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 217
________________ अर्थ-सिद्ध ॐ कार रूप से साकार है एवं बिन्दु रूप से निराकार हैं। निराकार (दर्शन) तथा साकार (ज्ञान) के उपयोग से सिद्ध भगवान का यह उभयात्मक रूप सिद्ध होता है । अतत्यात्माप्यकारेण वाच्यः केवलशालिनाम् । उः पंचमीगतिर्मोक्षः पंचमस्वरसंज्ञया ॥ १७ ॥ अन्वय-आत्मा अपि अकारेण अतति केवलशालिनां वाच्याः । पंचमस्वरसंशया उः पंचमीगतिः मोक्षः ॥ १७ ।। अर्थ-अकार से जो गतिमान् है, उसके निर्देश से आत्माका भी वह वाच्य होता है ऐसा केवल ज्ञानी कहते हैं। पांचवा स्वर होने के कारण उ पंचम गति मोक्ष को प्रदान करने वाला है। विवेचन--भव भ्रमण की चार गति है। नारकी, तिथंच, देव और मनुष्य और पंचम गति है मुक्ति । पंचम गति हेतु पांचवा स्वर उ है। तयोर्योगेमितिमहानन्दः स पुरूषोद्भवः । परमेश्वरसंज्ञासौ ताद्रप्यं तत्स्मृतेर्भवेत् ॥ १८ ॥ अन्वय-तयोः योगे म् इति महानन्दः स पुरूषोद्भवः असौ परमेश्वरसंशा तत् स्मृतेः ताप्यं भवेत् ॥ १८॥ अर्थ-इन अ और उ के साथ मिला हुआ म् महान् आनन्द का सूचक है वह ॐ उस परम पुरूष से उत्पन्न होता है जिसे हम परमेश्वर कहते हैं। इसि के स्मरण करने से (साधक) तद्रुप होते है। अ इत्यर्हन् ऋकारः श्रीऋषभोरेफवेदतः।। अमित्यर्हन् महावीर-स्तत्संधावों प्रतीयते ॥ १९ ॥ अन्वय-अ इति अर्हन् रेफवेदतः ऋकारः श्री ऋषभः। अं इति अहन् महावीरः तत्सन्धौ ॐ प्रतीयते ॥ १९ ॥ १९२ अईद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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