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अर्थ-अब पिण्डस्थ एवं रूपातीत ध्यान के प्रकार बता रहे हैं :अपनी आत्मा में ध्येय के स्वरूप का ध्यान करने को पिण्डस्थ ध्यान कहते हैं और जब आत्मा अपने में ही स्थित हो जाती है और दूसरा कुछ भी संकेतित आभासित नहीं होता तब उसे रूपातीत ध्यानावस्था कहते हैं।
सिद्धा नैकेनतन्मूर्ति-नीतेषु ध्यानगोचराः।। ज्ञानदानात्पूर्वदशा ध्येयैषां गौरवे ततः ॥१८॥
अन्वय-न एकेन तन्मूर्ति नीतेषु सिद्धाः ध्यानगोचराः ततः एषां शानदानात्पूर्वदशा गौरवे ध्येया ॥ १८ ॥
अर्थ-मात्र एक सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए (अरुपी) सिद्ध परमात्मा (रुपस्थ) ध्यान के विषय नहीं हैं परन्तु उनकी देशनासे पूर्व की गौरवपूर्ण समस्त दशाएं ध्यान करने योग्य हैं ।
ज्ञानेऽप्याद्योऽहंदादिर्य-स्तद्धयानार्चा नमस्क्रियाः। तादात्म्या प्राप्तये ध्यातः पूजकादेरपिक्रमात् ॥ १९ ॥
अन्वय-पूजकादेः तादात्माप्राप्तये शानेऽपि अहंदादियः आद्यः तत् ध्यानार्चा नमस्क्रिया क्रमात् ध्यातः ॥ १९॥
अर्थ-पूजकों को तद्रपता की प्राप्ति के लिए ज्ञान में भी जो अर्हदादि मुख्य हैं उनका नमन, पूजन एवं ध्यान क्रम से करना चाहिए । ध्यान के लिये अनुकूल चित्त निर्माण के लिये उपासना मार्ग का अब निरुपण शुरु होता है।
अर्हद्र्वोः स्मृतिः सेवा तत्त्वश्रद्धा च पूजना। तदैकाग्रये तदीयाज्ञा विप्रस्येव महाश्रियै ॥ २० ॥
अन्वय-अर्हत् गुर्वोः स्मृतिः सेवा तत्त्वश्रद्धा च पूजना तदैका ग्रये तदीयाशा विप्रस्य इव महाश्रियै ॥ २०॥
अर्हद्गीता
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