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... अर्थ-श्री जैन शासन में बहुधा नव तत्त्व (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष) की मान्यता प्रसिद्ध है, किंतु जीव अजीव, पुण्य पाप, आदि युगल से प्रतिपक्ष के रूप में निर्जरा के साथ वेदना तत्त्व ग्रहण करने से दस तत्त्व हो सकते हैं।
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तेन तृतीयतुर्याङ्गे वेदनायाः पृथक् ग्रहः । - बंधे मोक्षः प्रतिपक्षो वेदनायां हि निर्जराः (रा) ॥७॥
अन्वय-तेन तृतीयतुर्याङ्गे वेदनायाः पृथक् ग्रहः बन्धे प्रतिपक्ष मोक्षः वेदनायां हि निर्जरा ॥ ७ ॥
अर्थ-इसीलिए तृतीय एवं चौथे अंग में वेदना का अलग से ग्रहण होता है। बन्ध का प्रतिपक्ष मोक्ष है तो निर्जरा का प्रतिपक्ष वेदना मान्य हो सकता है।
प्रदेशैवेदनावश्यं विभाषात्वनुभागतः । तत्त्वानि नव वा सप्त तेन ख्यातानि लाघवात् ॥ ८॥
अन्वय-प्रदेशैः अनुभागतः वेदना अवश्यम् । विभाषा तेन लाघवात् तत्त्वानि सप्त वा नव ख्यातानि ॥ ८॥
अर्थ-तत्त्व की परिभाषा अनुभाग अर्थात् रसबंध से करे तो आत्मा के असंख्य प्रदेशों में वेदना तो अवश्य होती है* किंतु संक्षेप करने के कारण तत्त्वों की संख्या सात अथवा नौ प्रसिद्ध है। वस्तुतः कोई भेद नहीं है किंतु वर्गीकरण की अलग अलग पद्धतियों से तत्त्वसंख्या में भेद हो सकते हैं।
* चार प्रकार के बन्ध हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध (अनुभाग), प्रदेशबन्ध ।
अर्हद्गीता
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