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सप्तदशोऽध्यायः
वासनाएं उर्ध्वगति में वाधक
[ श्री गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा है कि भगवान यदि संसार में तत्त्व से ऐक्य देखा जाय तो फिर संसार में विधेय एवं अविधेय क्या है क्योकि संसार की उभय गति दिखाई देती है।
श्री भगवान ने उत्तर दिया संसार में सभी साधक बाधा रहित साधन के लिए प्रयत्न करते हैं अतः परब्रह्म की प्राप्ति में बाधक इच्छाओं का नाश कर लेना चाहिए। माया भी ब्रह्म का विवर्त है और उसी का प्रपंच आत्मा में इच्छाओं को बढ़ाता है अतः उसकी निवृत्ति के लिए उत्पाद एवं व्यय की भावना करनी चाहिए। निश्चय नय से तो तत्त्व सत् रूप एक ही है पर व्यवहार से वह दो प्रकार का हो जाता है जैसे लोक-अलोक, जीव-अजीव, पर-अपर, रूपी-अरूपी, जड-चेतन, प्रत्यक्ष-परोक्ष आदि । अतः सात्विक वृत्ति के लोगों को पृथक्त्व विचार से इच्छा के नाश के लिए श्रुतज्ञान के आलम्बन पूर्वक चेतन और अचेतन पदार्थों के भिन्न भिन्न पर्यों का चिन्तन करना चाहिए। बाह्य व्यवहार में भक्ष्याभक्ष्य की पालना और आभ्यन्तर जीवन में बारह भावनाओं के भावन से पुण्यशाली जीव केवल ब्रा का आस्वादन करता है।]
अर्हद्गीता
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