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अर्थ-जिस प्रकार आँखों के सन्दर्भ में सचमुच द्रष्टि विहीन एवं भावदृष्टि वाला जीव आँखों वाला (प्रज्ञाचक्षु) कहा जाता है वैसे ही लोकाकाश में भी जीव की उपस्थिति के कारण अखंड आकाश में स्थित अलोक भी चैतन्य युक्त कहा जाता है।
यथाक्रमेण सिद्धं स्याद्वान्यं वा साधकं जने । तथात्मनः सिद्धताऽपि क्रमात् साधकताभृतः ॥ १९ ॥
अन्वय-यथाक्रमेण जने साधकं वा अन्यं सिद्धं स्यात् तथा साधकताभृतः आत्मनः अपि क्रमात् सिद्धता (स्यात्)॥ १९॥
अर्थ-जिस प्रकार मनुष्य में साधक की अथवा अन्य प्रकार की सांसारिक उपलब्धि अपने आप क्रमशः सिद्ध होती है वैसे ही साधक आत्मा को भी क्रम से सिद्धता प्राप्त होगी ही।
शिवेऽपरपरिणामापेक्षया सिद्धताऽक्षया । स्वपर्यायागुरूलघुवृत्त्या साधकता पुनः॥ २० ॥
अन्वय-शिवे अपरपरिणामापेक्षया अक्षया सिद्धता पुनः स्वपर्यायागुरुलघुवृत्त्या साधकता ॥ २०॥
अर्थ-शिव में अपर परिणाम की अपेक्षा से (अपरिणामी होने से) सिद्धता अक्षय होती है और पुनः अपने पुनः चेतन पर्याय की अगुरुलघुवृत्ति से उसकी साधकता भी सिद्ध होती है। यह सचमुच नय वाद का चमत्कार है कि जीव में एक अपेक्षा से सिद्धरूप तथा दूसरी अपेक्षा से साधकरूप प्रदर्शित किया है। संकोच या विस्तार के रुप में परिणमन करना यह पर्याय का गुण है। इस परिणमन का सतत् निरोध करना यह सिद्ध आत्मा की साधना है।
अहंद्गीता
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