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___अर्थ-जीव दो प्रकार का है सिद्ध और संसारी। सिद्ध जीव भी ज्ञानी और दर्शनी है संख्या की अपेक्षा से अथवा वृद्धि से युक्त और आत्म प्रदेश की अपेक्षा से सान्तर और हीनत्व ज्ञान और दर्शनशक्ति की अपेक्षा से अनन्तर वैसे षट् प्रकार के हैं।
विवेचन-अक्षय और असंख्य होते हुए भी कालभेद से वर्तमान सिद्ध जीवों में भविष्य की अपेक्षा से हानी और भूतकाल की अपेक्षा से वृद्धि दिखायी गई है। प्रति समय कोई जीव को सिद्धत्व की प्राप्ति होती है इसलिये काल की अपेक्षा से उनकी संख्या वृद्धिमान या हीन दिखायी देती है। जीव के आत्मप्रदेश असंख्य होते हुए भी व्याप्ति की अपेक्षा से सान्तर और समुचे लोक को अपनी दर्शन शक्ति में समन्वित करता हुआ सिद्ध जीव अन्तर भी है।
त्रसः स्थिरो वा संसारी-त्यादिर्वस्तु द्विरूपताम् । भाव्या पृथकत्व विचारादिच्छानाशायसात्त्विकैः ।। १६॥
अन्वय-त्रसः स्थिरो वा संसारी इत्यादि वस्तु द्विरूपताम् । इच्छानाशाय सात्त्विकैः पृथक्त्व विचारात् भाव्या ॥१६॥
अर्थ-संसारी जीव त्रस व स्थावर दो प्रकार का होता है। इस प्रकार सभी वस्तुएं दो प्रकार की हैं। सात्विक वृत्ति के लोगों को पृथक्त्व विचार से इच्छा के नाश के लिए इस प्रकार द्विरूपता की भावना करनी चाहिए। अर्थात् पृथक्त्व विचार से श्रुतज्ञान के आलंबनपूर्वक चेतन और अचेतन पदार्थों के भिन्न भिन्न पर्यायों का चिन्तन करना ही द्विरूपता की भावना है और इस भावना का हेतु है विषयों से विरक्त होना।
कषायकलुषश्वात्मा यावन्न विषयांस्त्यजेत् । तावनेच्छाविनाशः स्यात् प्रकाशोऽपि च वास्तवः ॥ १७॥
अन्वय-कषायकलुषः च आत्मा यावत् विषयान् न त्यजेत् तावत् इच्छाविनाशः न स्यात् वास्तवः प्रकाशः अपि च ॥१७॥
अर्थ-वास्तव में कषायों से कलुषित आत्मा जब तक विषयों को नहीं
अहंद्गीता
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