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सत्त्वं गोधूमराज्ञादौ यथावश्यं प्रशस्यते । सत्त्वं गुणेष्वपि तथा प्रशस्तं विक्रमार्कवत् ॥ १४ ॥
अन्वय-यथा गोधूमराज्ञादौ सत्त्वं अवश्यं प्रशस्यते तथा गुणेषु अपि विक्रमार्कवत् सत्त्वं प्रशस्तम् ॥ १४ ।।
अर्थ-जिस प्रकार गेहूँ आदि पदार्थों में तथा राजा आदि में सत्त्व (शक्ति) की ही चाहना की जाती है वैसे ही (राजाओं में भी) विक्रमादित्य की तरह गुणों में भी सत्त्व गुण को महत्त्व दिया जाता है। अर्थात् पुरुष का सत्त्व उनके पुरुषार्थ में या आचरण में प्रगट होता है जैसे मणि अपनी सुंदरता में। सत्त्व हो और उसका प्रभाव जीवन व्यवहार में प्रत्यक्ष न हो ऐसा संभव नहीं है।
पाषाणघोलनन्याया-वभ्रममुखाः क्रियाः । कुर्वन्लाघवमेत्यङ्गी सम्यकत्वधनमश्नुते ॥ १५॥
अन्वय-पाषाणघोलनन्यायात् भवभम्रमुखाः क्रियाः कुर्वन् अंगी लाघवं सम्यक्त्वधनं अश्नुते ॥ १५ ॥
__ अर्थ-पाषाण घोलन न्याय से संसार भ्रमण की क्रिया करता हुआ जीव कर्म लघुता को प्राप्त कर सम्यक्त्व रूप महान् धन को प्राप्त करता है।
विवेचन-नदी की धारा में शिला खंड खिसक खिसक कर घर्षण होने से टूटकर अपना लघुत्व प्राप्त करता है, वैसे ही भव भ्रमण में भारी दुख भोगता हूआ जीव अपनी भवितव्यता से लघुकर्मी होकर धर्म क्रियाओं से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
मिथ्यात्वाविरतित्यागात् कषायविजयात् क्रमात् । सयोगी योगरोधेन जीवः शिवपदोचितः ॥ १६ ॥
अन्वय-मिथ्यात्वअविरतित्यागात् क्रमात् कषाय-विजयात् जीवः योगरोधेन शिवपदोचितः ॥१६॥ अष्टादशोऽध्यायः
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