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भावशून्यापि जीवानां सुखाय धार्मिकी क्रिया। तद् ग्रैवेयकसंभूति-भव्येऽप्यर्हतां मता ॥ १९ ।।
अन्वय-भावशून्या अपि धार्मिकी क्रिया जीवानां सुखाय तद् प्रैवेयकसंभूतिः अभव्ये अपि अर्हतां मता ॥ १९॥
अर्थ-सम्यक् किन्तु भाव शून्य धार्मिक क्रिया भी यदि की जाय तो जीवों को सुखदायक होती है। अभव्य जीवों की भी नव ग्रैवेयक तक के देवलोकों की प्राप्ति हो जाती है यह जिनेश्वरों का मत है।
विवेचन-ज्ञान के महात्म्य की चर्चा यथास्थान करके यहां क्रिया को अर्थशून्य न मानकर उसका महात्म्य दिखाया गया है।
मनोवाकाय संयोगा-चरणाचरणे ततः ।। साक्षान्मोक्षमुपेत्यङ्गी किं चित्र तत्र मन्यते ॥ २० ॥
अन्वय-तत: मनोवाक्कायसंयोगात् चरणाचरणे अंगी साक्षात् मोक्षं उपेति तत्र किं चित्रं मन्यते ।। २०॥
अर्थ-इसीलिए सद्भाव पूर्वक मनवचन काया के योग से चारित्र का आचरण करने पर जीव साक्षात् मोक्षपद का अधिकारी होता है इसमें क्या आश्चर्य है ? अर्थात् भावशून्य क्रिया नव ग्रैवयक प्राप्ति का सामर्थ्य रखता है वह अगर भावपूर्ण हो जाय, ज्ञानयुक्त हो जाय तो मोक्षपद की प्राप्ति अवश्य होती है।
फलं विरतिरेवासौ ज्ञानस्य मुनिनोदिता । अवकेशि विना तां तत् मत्वा तत्त्वादृतो भवेत् ॥ २१ ॥
अन्वय-असौ ज्ञानस्य मुनिनोदिता विरति एव फलं तां विना तत् मत्वा अवकेशि तत्त्वात् ऋतः भवेत् ॥ २१ ॥
अष्टादशोऽध्यायः
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