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अष्टादशोऽध्यायः
ऐक्येऽपि तात्त्विकेनैक्यं भाव्यते ब्रह्मशुद्धये । अभ्यस्यते क्रिया किं न लोकैस्तस्याः फलैषिभिः ॥ १ ॥
अन्वय-तात्त्विके ऐक्ये अपि ब्रह्मशुद्धये अनैक्यं भाव्यते फलैषिभिः लोकैः तस्याः क्रिया किं न अभ्यस्यते ॥१॥ .
अर्थ-(प्रश्न उठता है कि) मूल पदार्थ तत्त्वद्रष्टि से एक होने पर भी आत्मशुद्धि के लिए अनेकता की भावना की जाती है तो फिर (ब्रह्मस्वरूप के) फल कामना करने वाले लोगों के द्वारा तद्प उचित क्रिया का अभ्यास क्यों नहीं किया जाता है ?
यथा षण्यमणेः शाणोल्लेखघर्षादिसंस्कृतिः । स्वरूपलब्ध्यै तस्यैव ब्रह्मशुद्धौ तथा क्रिया ॥२॥
अन्वय-यथा पण्यमणेः तस्यैव स्वरूपलब्ध्यै शाणोल्लेखघर्षादि संस्कृतिः तथा ब्रह्मशुद्धौ क्रिया ॥२॥
अर्थ-(क्योंकि) जिस प्रकार बहुमूल्य मणि की अपनी सुन्दरता की उपलब्धि के लिए सान पर कसना घिसना आदि संस्कार क्रियाएं की जाती हैं वैसे ही आत्मशुद्धि के लिए भी क्रियाएं की जाती है।
न केवला क्रिया मुक्त्यै न पुनर्ब्रह्म केवलम् । जीवन्मुक्तोऽपि शैलेश्या केवली स्याच्छिवंगमी ॥ ३ ॥
अन्वय-मुक्त्यै न केवला क्रिया न पुनः केवलं ब्रह्म। जीवन्मुक्त: अपि केवली शैलेश्या शिवंगमी ॥३।। अर्थ-मुक्ति के लिए न तो केवल क्रिया की ही आवश्यकता है
अर्हद्गीता
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