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सप्तदशोऽध्यायः
श्री गौतम उवाच
ऐक्यं प्रपश्यतस्तत्त्वात् स्यामिस्तनुभृतो ननु । विधेयमविधेयं वा किंचिन्नैव प्रभासते ॥१॥
अन्वय-स्वामिन् ! ननु तत्त्वात् ऐक्यं प्रपश्यत: तनुभृतः विधेयं अविधेयं वा किंचित् नैव प्रभासते ॥१॥
अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने भगवान से पूछा, हे स्वामी यदि तत्त्व से संसार में ऐक्य देखा जाय तो जीव के लिए संसार में क्या विधेय है और क्या अविधेय इसका कुछ भी मालूम नहीं पड़ेगा।
एवं सति न देवः स्यात् सेव्यः कश्चिन्न वा गुरुः । न धर्मः शर्मणे कार्यस्त्याज्योऽधर्मश्च कश्चन ।। २॥
अन्वय-एवं सति न देवः सेव्यः स्यात् न कश्चित् वा गुरूः सेव्य स्यात्। न शर्मणे धर्मः कार्यः अधर्मश्च न कश्चन त्याज्यः॥२॥
अर्थ-ऐसा होने पर फिर न तो देव सेव्य होंगे और न कोई गुरू सेव्य होंगे। सुख के लिए धर्म कार्य करने तथा अधर्म के त्याग की फिर बात ही नहीं होगी।
श्री भगवानुवाच साध्यार्थी यतते सर्वः साधने निर्विबाधने । साध्ये ब्रह्मणि तत्कार्यः कामनाशोऽस्य बाधनः ॥ ३ ॥
अन्वय-सर्व साध्यार्थी निर्विवाधने साधने यतते। अस्य बाधनः कामनाशः तत् ब्रह्मणि साध्ये कार्यः ॥ ३ ॥ पोडशोऽध्यायः
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