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अन्वय-नीलपीतादि रूपं स्यात् तत् योगे अणुः रूपवान् । अणु सम्बन्धतः अयं जीवः अपि कथंचन रूपी ॥१६॥
___ अर्थ-नीला, पीला, लाल आदि वर्ण रूप हैं। इन नीले, पीले आदि रूपों के योग से अणु भी रूपवान् होता है और अणु के सम्बन्ध से यह जीव भी किसी प्रकार से रूपी दिखाई देता है।
रूपी सिद्धोऽपि तद्ज्ञानात् खं रूपि स्यात्तदाश्रयात् । अलोकेऽपि वियद्रूपि लोकखात् सर्वथाऽभिंदः ॥ १७॥
अन्वय-तदशानात् सिद्धः अपि रूपी। तदाश्रयात् खरूपी स्यात् । अलोकेऽपि वियपि लोकखात् सर्वथा अभिदः ॥ १७ ॥
अर्थ-इस ज्ञान की अपेक्षा से सिद्ध भी रूपी है क्योंकि अणु के आश्रय से वह सिद्ध स्वयंरूपी होते हैं। (यह कैसे संभव है वह समझा कर कहते हैं) देखिए--अलोक में भी आकाश रूपी है क्योंकि वह लोकाकाश से सर्वथा भिन्न नहीं है। दोनों में व्यापकता का गुण समान है। उस अपेक्षा से देखें तो पुद्गल अणु के आश्रय से द्रव्यरूप से सिद्ध यह जीव रूपी बनता है। लोक संज्ञा से लोकाकाश से सर्वथा अभिन्न अलोकाकाश भी रूपी (नीला आकाश ) कहा जाता है। इसी न्याय से सिद्धत्व के गुण की अपेक्षा से अगर सर्व आत्माओं को देखा जाय तो सिद्ध परमात्मा भी रूपी की संज्ञा में समाविष्ट होते हैं। ब्रह्मदर्शन भेदके भितर छूपी हुई एकता ही दर्शन है। इस कारण अपेक्षा भेद से वस्तु सामान्यका निरूपण किया गया है।
यथाक्षिदेशे भावेक्षी चक्षुष्मान् जीव उच्यते । लोकाकाशे जीवसत्त्वात् तथाऽलोकः सचेतनः ॥१८॥
अन्वय-यथा अक्षिदेशे भावेक्षी जीवः चक्षुष्मान् उच्यते तथा लोकाकाशे जीवसत्त्वात् अलोकः सचेतनः (उच्यते) ॥१८॥ षोडशोऽध्यायः
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