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ता॥२०॥
अन्वय-चैतन्यशक्त्याविष्टः सद्भावः जीव इति स्मृतः। तदभावात् अन्यः अजीवः इयं कल्पना भुवि ख्याता॥१०॥
. अर्थ-संसार में यह कल्पना प्रसिद्ध है कि चैतन्य शक्ति से युक्त सद्भाव जीव है और उस चैतन्य शक्ति से रहित अन्य अजीव है अर्थात् चैतन्य से युक्त जीव एवं चैतन्य से रहित अजीव ।
जीवोऽप्यजीवोऽजीवज्ञः इति प्रवचने वचः । अजीवो जीवसंज्ञेय-स्तास्थ्यात्तद्वयपदेशतः ॥ ११ ॥
अन्वय-जीवः अपि अजीवः इति अजीवज्ञः प्रवचने वचः तात्स्थ्यात् तत् व्यपदेशतः अजीवः जीव संज्ञेयः ॥११॥
अर्थ-अजीव को जानने वाला ( भौतिकवादी ) तो जीव को भी अजीव मानता है ऐसा शास्त्रों में कहा गया है क्योंकि "तात्स्थ्यात् तत् व्यपदेशतः” अर्थात् जिसमें जो रहा हो वह उसी स्वरूप का माना जाता है इस न्याय से जीव को आश्रय देनेवाले अजीव शरीर को भी जीव मानते हैं।
सूरबिम्बेऽपि सूरत्वं लोके लोकोत्तरे स्फुटम् । अजीवे स्थापनाजीवः निक्षेपस्तेन संगतः ॥ १२ ॥
अन्वय-सूरबिम्बेऽपि सूरत्वं लोके लोकोत्तरे स्फुटम् तेन अजीवे स्थापना जीवः निक्षेपः संगतः ॥ १२॥
अर्थ-मानवी सृष्टि तथा मानवोत्तर (दैवी सृष्टि) के सूर्य बिम्ब में भी सूर्यत्व स्पष्ट रूप से माना जाता है उसी न्याय से अजीव में भी जीव की स्थापना-निक्षेप युक्तियुक्त दिखाई देती है।
शिवो जीवोऽभवत्प्राणै-जीवोऽजीवोऽपि पुद्गलः। ..
दशमाणैरभावेन स्थावरे जीवता क्वचित् ॥ १३ ॥ षोडशोऽध्यायः
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