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जलाहरण का कार्य होता है अतः ( वर्तमान सत्यको मानने वाले, -ऋजुसूत्र) विशेष नय से उसे घड़ा कहा जाता है पर लोकोक्ति को मान्य करने वाले नैगम नय से ये दोनों नय पृथक् है। व्यवहार नय से तो फूटा घड़ा भी घड़ा ही कहा जाता है क्योंकि वह प्रयोजन को देखता है।
चत्वारोऽर्थनया एते परं शब्दे नयत्रयम् । वाच्यवाचकयोर्योगाद् शाब्दिका वार्थिकाः समे ॥ ८॥
अन्वय-एते चत्वारः अर्थनयाः शब्दें नयत्रयम् । परं वाच्यवाचकयोः योगाद् शाब्दिका वाआर्थिकाः नयाः समे ॥८॥ .
___अर्थ-नैगम, संग्रह, व्यवहार तथा ऋजुसूत्र यह चारों (प्रधान हेतु अर्थ प्रकट करना हैं इसलिये ) अर्थ नय माने गये हैं। शब्द, समभिरुढ़ और एवंभूत यह तीनो (शब्द का विचार प्रधानतया होने से) शब्दनय माने गये हैं। (एवंभूत नय को छोड़कर) बाकी दो शब्द और समभिरुढ़ नय को वाच्य वाचक सबंध होने से चार अर्थनय समान माने गये हैं अर्थात् शब्द नय और समभिरुढ़ नय को उपरोक्त चार नयों के वाचक यानि अर्थ प्रकाशक माने गये हैं।
आर्यदेशे धर्म इति श्रुत्या शब्देन धर्मवान् । देशोऽव्रती व्रती धर्मी श्राद्धः समभिरूढतः ॥९॥
अन्वय-आर्यदेशे धर्म इति श्रुत्या देशः अव्रती शब्देन धर्मवान् श्राद्धः व्रती समभिरुढतः धर्मी ॥९॥
अर्थ-धर्म शब्द का नयवाद में विचार करते कहा है कि आर्य देश में धर्म शब्द कहने से सर्वविरति साधु और देशविरति या सम्यग् दृष्टि भाव के आदि सभी शब्द नय से धर्मी कहे जाते हैं किन्तु वास्तव में धर्मी तो समभिरुढ़ नय से सिद्ध होता है अर्थात् जो धर्म कार्य कर रहा है वही
दशमोऽध्यायः
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