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अर्थ-नैगम सामान्य और विशेष दोनो अपेक्षा से वस्तुको देखता है। वस्तुस्मृति से युक्त होने पर शिशु ज्ञानी माना जाता है पर यदि वह वस्तु तत्त्व को भूल जाता हैं तो अज्ञानी भी कहा जाता है, यह लोक विचार को ग्रहण करने वाले नैगम नय से हैं पर व्यवहार नय से तो शिशु अज्ञानी ही है। नैगम नय का भेद उन्हें मान्य नहीं है।
प्रसुप्ते मूर्छिते मत्ते न ज्ञानं शाब्दिके नये । तद्दर्शनोपयोगश्च न ज्ञानीत्यागमे वचः ॥ १३ ॥
अन्वय-शाब्दिके नये प्रसुप्ते मूर्छिते मत्ते न ज्ञानं तद् दर्शनोपयोगश्च न ज्ञानी इति आगमे वचः ॥ १३ ।।
__ अर्थ-(तीन शब्द नयो का स्वरूप वर्णन शुरू होता है।) आगम में ऐसा कथन है कि शब्द नय की अपेक्षा से सोये हुए, बेहोश व पागल में ज्ञान नहीं होता है। वैसे ही मात्र दर्शनोपयोग वाला भी ज्ञानी नहीं कहा जाता है अर्थात् ज्ञान की संज्ञा होने पर ज्ञानीका लक्षण प्रकट न हो तो शब्द नय एसे व्यक्ति को ज्ञानी मान्य नहीं करेगा ।
घटं ज्ञात्वा पटज्ञो न घटज्ञोऽप्यभिरूढितः । एवम्भूतेन घटज्ञ एवं सर्वत्र भावना ॥१४॥
अन्वय-अभिरुढितः घटशः अपि घटं ज्ञात्वा पटज्ञो न (स तु) एवम्भूतेन घटशः एवं सर्वत्र भावना ॥१४॥
अर्थ-( समान अर्थ सूचक पर्यायोंका अर्थ भेद दिखाते हुए) समभिरुढ नय से तो विशेषज्ञ होते हुए भी घड़े का जानकार वस्त्र का जानकार नहीं होता है और एवंभूत नय से जो घड़े के बारे में वर्तमान में ज्ञान रखता है वही घटज्ञ है। इसी प्रकार वस्तु की अथवा तत्त्व की वास्तविक स्थिति को भेदज्ञान से पहचानने की सर्वत्र भावना रखनी चाहिए।
दशमोऽध्यायः
अ, गी.-७
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