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ऋतु में गुड़ अमृत के समान माना जाता है। अथोत् इन ऋतुओं में इन वस्तुओं का सेवन हितावह है।
दृश्यते चिंत्यते यद्वा कथ्यते यादृशो रसः । तागृतुः प्रश्नफले मनोज्ञेन विमृश्यताम् ॥ १२ ॥
अन्वय-यादृशः रसः दृश्यते चिन्त्यते यद्वा प्रश्नफले ताहर ऋतुः मनोज्ञेन विमृश्यताम् ॥१२॥
अर्थ-मन की रुचि एवं भाव देखकर उसी के अनुसार प्रश्नकर्ता की भाव ऋतु का विचार मनोज्ञ करते हैं।
विवेचन-कालपरिवर्तन से यदि स्थूल देह की प्रकृति में परिवर्तन होता है तो मनमें भी भावों का परिवर्तन न हो यह संभव नहीं है। ऋतुचक्र सदृश भावचक्र के रूप में चित्त में परिणमन होते हैं।
मेषो दिदृक्षया जल्पे वृषो भोगे तु मिथुनम् । जले वांछाबलात् कर्की सिंहः सात्त्विकचिंतया ॥ १३ ॥
अन्वय-दिदृक्षया मेषः जल्पे वृषः भोगे तु मिथुनम् ! जले वांछाबलात् कर्की, सात्त्विकचिन्तया सिंहः ॥ १३॥
अर्थ-अब राशियों का वर्णन हो रहा है। मन की प्रकृति को देखने की इच्छा में मेष राशि, बोलने में वृषभ, भोगेच्छा में मिथुन, जल की इच्छा बलवती होनेपर कर्क एवं सात्त्विक चिन्तन की अवस्था में सिंह राशि होती है।
विवेचन-सम्पूर्ण आकाश मण्डल निरन्तर घूमता रहता है अतः पूर्वी क्षितिज पर जिस समय जो राशि दिखाई देती है उस समय की वही राशि मानी जाती है। सृष्टि में सर्वप्रथम पूर्वी क्षितीज पर मेषराशि दिखाई दी थी अतः राशियों की गणना मेषसे ही प्रारम्भ होती है जो राशिमंडल अनुसार प्रत्येक जातक के स्वभावका सद्भाव और दुर्भाव का लक्षण माना गया है और ज्योतिषशास्त्र मन की गहराइ को कैसे छ शकता है इसका निर्देश किया गया है। यहाँ राशि और भावका संबंध का संकेत दिया गया है। जिज्ञासु को ज्योतिषशास्त्र का पठन करना होगा।
द्वादशोऽध्यायः
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