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स्याद्भाव एक एवायमस्ति प्रत्ययगोचरः ।
लक्षण निषेधोsपि सविधेः सविधे खलु ॥ १७ ॥
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अन्वय- सविधेः सविधे खलु प्रत्ययगोचरः सोऽयं भावः एक एव अस्ति । तल्लक्षणः निषेधः अपि ॥ १७ ॥
अर्थ - ब्रह्म एवं सोपाधि आत्मा प्रत्यक्ष रूप से अलग अलग दिखाई देते हैं परन्तु उनमें एक ही चैतन्य प्रतिष्ठित है । स्थिति अगोचर होने से निषेध भी उसका लक्षण हो जाता है ।
सत्तां विना नासत्ता स्था- नाजीवो जीववर्जने । ज्ञेयत्वादिगुणैरेवं न (ना) भावो भावतोऽपरः ॥ १८ ॥
अन्वय-सत्तां विना असत्तां न स्यात् तथा न अजीवः जीववर्जने एवं ज्ञेयत्वादिगुणैः भावः अभावतः परः न ॥ १८ ॥
अर्थ - (निषेध को लक्षण कैसे माना जाय यह समझाते हुए कहते हैं ) सत्ता के बिना असत्ता का भास नहीं होता तथा जीव के बिना अजीव की स्थिति का ज्ञान नहीं होता वैसे ही ज्ञेयत्वादि गुणों के कारण अभाव भी भाव से भिन्न नहीं है ।
अजीव होते हैं । वह भाव और अभाव लक्षण से प्रमाणीत होता है। सूर्य सत् है । अंधकार । सूर्य गोचर होने से दिन और अगोचर होने से रात्रि होती है ।
विवेचन - सत् द्वैतस्वरूपी होने से लोक- अलोक, धर्म-अधर्म और जीवअर्थात् विधायक और निषेधक दोनो उसकी सत्ता प्रकाश है और असत्ता
विधिर्विधत्ते स्वं रूपं स्वेन विश्वेन संगतम् ।
विधिद्य जगत्कर्ता भर्ता हर्ता स्वशक्तितः ॥ १९ ॥
अन्वय - स्वेन विश्वेन संगतं स्वं रूपं विधिः विधत्ते स्वशक्तितः विधिः जगत्कर्ता भर्ता हर्ता च वेद्यः ॥ १९ ॥
अर्थ - अपने ही संसार के अनुरूप विधि (ब्रह्म) अपने स्वरूप का
निर्माण करता है । अपनी शक्ति से ही यह ब्रह्म जगत् के कर्ता भर्ता और
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पञ्चदशोऽध्यायः
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