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षोडशोऽध्यायः श्री गौतम उवाच
ऐक्यं सर्वत्र सर्वज्ञ ! कथं मनसि भाव्यते । प्रपंचोऽर्थक्रियाकारी वस्तुतः वस्तुनः क्षितौ ॥१॥ लोकालोकस्तथाजीवो-ऽजीव(:)स्याचेतनोऽन्यथा । रूप्यरूपी तथा सिद्धः साधकः सेव्यसेवकौ ॥ २ ॥ पुण्यपापे बंधमोक्षौ वेदनानिर्जरेत्वपि । आश्रवः संवरश्चेति साक्षाद्वैविध्यमार्थिकम् ॥ ३ ॥
अन्वय-हे सर्वज्ञ ! वस्तुतः क्षितौ वस्तुनः प्रपंच अर्थक्रियाकारी मनसि सर्वत्र ऐक्यं कथं भाव्यते ? ( इति वद ) लोकालोकः तथा चेतन जीव अन्यथा अजीव स्यात् । रूपी अरूपी तथा सिद्धः साधक सेव्यसेवकौ पुण्यपापे बन्धमोक्षौ वेदनानिर्जरे तु अपि आस्रवः संवर च इति साक्षात् द्वैविध्यं आर्थिकं (स्फुटत्) ॥१, २,३॥
अर्थ-श्री गौतम ने पूछा ! हे सर्वज्ञ, परमात्मा इस पृथ्वी पर वास्तव में वस्तु का प्रपंच नानार्थ क्रियाएं करने वाला है तो मन में सर्वत्र ऐक्य की भावना कैसे हो सकती है ? क्योंकि लोक एवं अलोक, चेतना से युक्त जीव अन्यथा अजीव, रूपी अरूपी, सिद्ध साधक सेवक स्वामी पुण्य पाप बन्ध मोक्ष, वेदना निर्जरा, आस्रव संवर आदि रूप में संसार में सर्वत्र द्वित्व की भावना स्पष्ट है।
श्री भगवानुवाच वैकल्पिकमिदं सर्व व्यवहारनयाश्रयात् । गौणमुख्यविविक्षातः ख्यातः सर्वोऽर्थसंचयः ॥ ४ ॥
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अहंद्गीता
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