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रस से मुनि भी प्रेम पात्र बनता है। यहाँ ज्ञान एवं क्रिया का युग्म भाव दिखाया गया है।
काये हि लक्षणं भावि वस्तुनः स्फुरणादिना । वाच्योपश्रुतिसूक्तायै-स्तथा चित्तैऽर्थभावनैः ॥१५॥
अन्वय-काये स्फुरणादिना वस्तुनः भावि लक्षणं तथा चित्ते वाच्योपश्रुति सूक्ताद्यैः अर्थभावनैः ॥ १५ ॥
अर्थ-शरीर के फड़कने, धड़कने आदि से वस्तु के भावी लक्षणों का ज्ञान हो जाता है वैसे ही वचन से उक्तियों से तथा उनकी अर्थभावना से मन के बारे में जाना जा सकता है।
लोकानुभावेन जलं यथा शरदि निर्मलम् । मनः सद्ज्ञानसंबद्धं लोकालोकप्रकाशकम् ॥ १६ ॥
अन्वय-यथा लोकानुभावेन शरदि जलं निर्मलं सदज्ञानसंबद्धं मनः लोकालोकप्रकाशकम् ॥१६॥
अर्थ-लोकानुभव से हम यह जानते हैं कि शरद् ऋतु में जल निर्मल हो जाता है वैसे ही सम्यक् ज्ञान से पवित्रीकृत मन लोकालोक का प्रकाशक हो जाता है। वहाँ आस्रव एवं संवर के द्वारा चित्त की कलुषता एवं निर्मलता का निदर्शन किया गया है। वर्षाजल के निरन्तर आस्रव से जल कलुषित होता है पर शरद में वर्षाजल के संवर से कूप तडागादि का जल निर्मल हो जाता है।
प्रधानं कारणं ज्ञानं मोक्षस्य न तथा क्रिया। अन्यलिंगेन किं सिद्धि-र्ज्ञानात्साम्ये समीयुषि ॥ १७ ॥
अन्वय-मोक्षस्य प्रधानं कारणं ज्ञानं तथा न क्रिया, ज्ञानात् साम्ये अन्यलिंगेन किं सिद्धि समीयुषि॥१७॥ चतुर्दशोऽध्ययः
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