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एकादशोऽध्यायः आत्म गुणों का विकास ही वीतराग मार्ग [ ग्यारहवें अध्याय में गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा है चैतन्यके ज्ञानरूपी लक्षण से सभी जन्तुओं में धर्म समाविष्ट है तो फिर कोई भी प्राणी अधर्मवान नहीं हो सकता है। तब भगवान ने उत्तर दिया कि आत्मा का स्वभाव ज्ञान होने से वह शुद्ध है पर पुद्गल की उपाधि से
वह अशुद्ध और आसक्त होती है। शुद्ध स्वभावी ज्ञान धर्म्य है पर a पुद्गलोपाधि से दूषित मिथ्या ज्ञान त्याज्य है।
बल्ब रंगीन हो तो श्वेत प्रकाश की किरणें तदनुसार रंगीन होगी। शुद्ध या शुभ, अशुभ जैसे भाव की धारणा होती है वैसा ज्ञानदृष्टि में परिवर्तन होकर जो कार्य होते हैं उनसे तदनुसार कार्यफल प्राप्त होते हैं। वासना से प्रभावित बुद्धि ज्ञान से आत्मा को अन्ततः कर्मबन्ध से दुखी होना पड़ता है अतः वह नेष्ट है। जिस वैराग्यमयी बुद्धि के ज्ञान से आत्मा को सुख होता है वह श्रेष्ठ होता है। विष मिला हुआ दुध जैसे पहले तो भोगसुख ठीक लगता है पर बाद में वह अनर्थ का कारण होता है। दूध होते हुए भी गाय का दूध पीने
योग्य होता है किंतु आक या थूहर का दूध त्याज्य होता है। भोग्य R और त्याज्य का विवेक होना चाहिये वही सम्यग् बुद्धि का ज्ञान है।
पांडित्य और वुद्धिवैभव का विकास भी मूढमति के लिये दुःखका हेतु होनेसे वह अज्ञान है किंतु श्रेय मार्ग पर चलनेवाले को काया क्लेश होते हुए भी आनंद के अनुभव का हेतु होने से वह शुद्धज्ञान है।।
संसार में सत्य, शौच, दया, शान्ति, त्याग, सन्तोष, सरलता, शमा कदम, तप, समता, तितिक्षा एवं वैराग्यादि गुण मंगल विधायक हैं ; गुणी
के चिंतन से इन महागुणो की सदैव उपासना करना वीतराग मार्ग
है। आत्मगुणों के विकास से और निर्मल चित्त से स्वयं को स्वयं में 2 जानना अर्थात् सत् चित् आनंदरुप स्थिति प्राप्त करना यह साधना
का हेतु है।]
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एकादशोऽध्यायः
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