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तथोपभोगवीर्यादेः सर्वथावरणसंक्षयः । वीर्याचारात्तपस्यादौ तेन स्थाजगदर्चनम् ॥ ११ ॥
अन्वय-तपसि आदौ वीर्याचारात् उपभोग वीर्यादेः सर्वथावरण संक्षयः तेन जगदर्चनं स्यात् ॥११॥
अर्थ-तपस्या में सर्व प्रथम वीर्याचार का पालन करने से उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय कर्मो के आवरण का सर्वथा क्षय होता है जिससे संसार में सम्मान होता है।
छत्रचामरपुष्पाद्यैः पूजासननिवेशनम् । पादक्षेपेऽम्बुजन्यासादिकं च जिनपूजनात् ॥ १२ ॥
अन्वय-छत्रचामरपुष्पाद्यैः पूजासननिवेशनम् पादक्षेपे अम्बुजन्यासादिकं ( कृत्य ) जिन पूजनात् ॥ १२॥
अर्थ-छत्र, चामर, फूलों से जिनेश्वर की पूजा करने से और चरणों में कमल को अर्पण करने से जिनेश्वर की पूजा होती है।
धर्मेऽधिकेऽधिको धर्म-स्तथाऽधर्मोऽप्यधर्मतः।। कारणानुगतं कार्यं दृष्टं तन्न्यायवेदिभिः ॥ १३ ॥
अन्वय-अधिके धर्मे अधिको धर्मः तथा अधर्मतः अपि अधर्म: - कारणानुगतं कार्य तत् न्यायवेदिभिः दृष्टम् ॥ १३ ।।
- अर्थ-अधिक धर्म का आचरण करने में अधिक धर्म है वैसे ही अधर्म से अधर्म ही होता है क्योंकि न्यायविद् लोगों ने यह देखा है कि कार्य तो कारण का अनुगामी होता है जैसा कारण होगा वैसा ही कार्य होगा।
भवे स्याद्विभवो दानादनंतज्ञानता शिवे । शीलादूपं बलं पूर्वे परे चानन्तवीर्यता ॥ १४ ॥
अध्याय चतुर्थः
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