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अष्टमोऽध्यायः ऐन्द्रे प्रवहणे धर्मे ज्ञानी मार्गप्रकाशकः । निर्यामकस्तु चरणी दर्शनी पारगः स्थिरः ॥ १॥
अन्वय-धर्मे ऐन्द्रे प्रवहणे ज्ञानी मार्ग प्रकाशकः चरणी तु निर्यामकः स्थिरः दर्शनी पारगः ॥१॥
अर्थ-आत्म धर्म की नाव में ज्ञानी मार्ग बताने वाला होता हैं तो चारित्रनिष्ठ व्यक्ति उस नौका का खिवैया हैं एवं सम्यग् दर्शनी उससे पार जाने वाला मुसाफिर हैं ।
रागः कञ्जलिका द्वेषो वह्निस्थानं विमूर्च्छना।। मोह एतत्त्रयीनाशे पारदोऽङ्गी सुसिद्धिभाक् ॥२॥
अन्वय-रागः कज्जलिका द्वेषः वह्निस्थानं मोह विमूर्च्छना एतत् त्रयींनाशे सुसिद्धिभाक् पारदः अङ्गी भवेत् ॥ २॥ - अर्थ-संसार में राग ही कालिख हैं जो कलंक लगाती है। द्वेष
आग हैं जो जलाता है एवं मोह बेहोशी हैं जिससे कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है। इन तीनों का नाश होने पर ही जीव पारद के समान सिद्धिशाली होता है।
ज्योतिर्ज्ञान पुनः स्नेहः श्रद्धा वृत्तं तु वर्तिका । जिनप्रवचने सौधे धर्म दीपः प्रकाशताम् ।। ३ ॥
अन्वय-ज्ञानं ज्योतिः पुनः श्रद्धा स्नेहः वृत्तं तु वर्तिका। जिन प्रवचने सौधे धर्मदीपः प्रकाशताम् ।
अर्थ-श्रद्धा के स्नेह में चारित्र की बात्ती भिगो कर ज्ञान ज्योति रूप इस धर्म दीप को जैनागम रूपी महल में प्रकाशित करो ।
अष्टमोऽध्यायः
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