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अर्थ-जिस प्रकार ज्वालाएं प्रकाश पूर्ण होने के कारण वेगवान अनि की स्वाभाविक उर्ध्वगति का सूचन करती है वैसे ही आत्मा का स्वभाव भी प्रकाशमान होने से उसकी गति भी स्वाभाविक रूप से उर्ध्व ही है ॥३॥
मोहात् पुद्गलसंयोगे भवेज्जाड्यमयं तमः । नीचैर्गतिस्ततोऽधर्माद्गौरवे नम्रता ध्रुवम् ॥ ४ ॥
अन्वय-मोहात् पुद्गलसंयोगे जाड्यमयं तमः भवेत्। तत् अधर्मात् नीचैः गति: गौरवे ध्रुवं नम्रता ।।४॥
अर्थ-मोह के कारण पुद्गल का आत्मा से संयोग होने पर चित्त में जड़तामय अन्धतमस् का उद्भव होता है। ज्ञान का नाश होता है और उससे जनित अधर्म से नीची अधम गतियाँ प्राप्त होती है क्योंकि कर्म रज के संयोग से भारीपन होने के कारण आत्मा को झुकना ही पड़ता है अर्थात् नीचे जाना ही पड़ता है। सामान्य अनुभव है कि अगर कंधे पर बोझ होगा तो झुककर ही चलना होता है ।
यादृशो ध्यायते येन फलमाप्यते तादृशम् । शुभयोगः शुभध्यानादशुभध्यानतोऽशुभम् ॥ ५॥
अन्वय-येन यादृशः ध्यायते तादृशं फलं आप्यते। शुभध्यानात् शुभयोगः अशुभध्यानतः अशुभम् ॥५॥
अर्थ-जिसका जैसा ध्यान होगा उसे वैसा ही फल प्राप्त होगा। शुभ ध्यान से शुभ वस्तुओं की प्राप्ति होगी एवं अशुभ ध्यान से अशुभ वस्तुओं की प्राप्ति होगी। यह कर्म फल का सिद्धांत है।
वर्णादिः पुद्गलगुण-च्छाया मायामयी ततः। जनयत्यंगिनां मोहं न मोहः सात्विके मनाक् ॥ ६॥
अन्वय-वर्णादिः पुद्गलगुणः ततः मायामयी छाया अंगिनां मोहं जनयति। सात्विके मनाक् मोहः न ॥ ६॥
अहंद्गीता
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