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- नवमोऽध्यायः
वीतरागभाव की महत्ता [नवें अध्याय में बताया गया है कि आत्मस्वरूपानुसंधान से आत्म ज्योति प्रकट होती है। इसके लिये अज्ञान और मोहरूपी अन्ध तमस्
और जडता का क्षय आवश्यक है। जिस प्रकार प्रकाशमयी होने के कारण अनी की स्वभावतः एक ऊर्ध्व गति है उसी प्रकार आत्मा भी प्रकाशमयी होने से उसकी ऊर्ध्वगति निश्चित है। पुद्गल के संयोग से आत्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति में रुकावट आती है। बोझिल होने से अधोगति होती है। कर्मक्षय से पुद्गलका बोझ हलका होता है। जो जैसा ध्यान करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। शुभ ध्यान से शुभ की प्राप्ति अवश्य है। पुद्गल के स्वभावसे मायामयी सृष्टि उत्पन्न होती है। माया स्त्रीरुप है अतः वामांगी है। जो दासवत् उसकी सेवा करता है और वह उसे छोड़ कर दूसरे भोक्ता पुरुष का सेवन करती है क्योंकि स्त्री संसार का मूल है एव प्रकृति से ही उसे भोग प्यारे होते हैं अतः ज्ञानी पुरुष को पौरुषरुप ज्ञान धर्म की आराधना करनी चाहिये। ज्ञानी वैरागी संसार में पुरुषोत्तम होता है एवं उसकी वल्लभा लक्ष्मी होती है अतः ज्ञान एवं धन का वैर कदापि नहीं है क्योंकि जैसे सरस्वती चैतन्य ज्ञान से प्रेम करती है वैसे ही लक्ष्मी भी अनासक्त चैतन्यपुरुष की प्रियतमा होती है। जो ज्ञानी मोहमय होता है लक्ष्मी उसकी वैरिणी होती है एवं जो पुरुष अज्ञानी है या मोह मुढ़ मिथ्या ज्ञानी है सरस्वती उसका त्याग करती है। संसार में समत्व युक्त धर्म सर्व कामनाएँ पूर्ण करने में समर्थ है। वह । सर्वार्थ सिद्धि है । वह परमेश्वर की साधु पुरुष में अवतारणा है। राग संसार का कारण है पर उससे द्वेष करना भी संसार-मो का हेतु नहीं है अतः दोनो से परे वीतराग भाव ही संसार में धर्म सम्मत है। इसी से संसार को जीता जा सकता है। वीतराग की आराधना तत्त्वज्ञान का सार है, यही धर्म है।]
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अहंद्गीता
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