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अर्थ-रंग रूप रस गंध स्पर्श आदि पुद्गल के ही गुण हैं इनसे मायामयी सृष्टि की रचना होती है। ये गुण सामान्यतः जीवों में मोह को उत्पन्न करते हैं पर सात्विक जीवों में लेश मात्र भी मोह नहीं होता है .क्योंकि उनमें पुद्गलों के गुणों के प्रति आकर्षण नहीं होता है।
यथा यथा त्यजेन्मायामियं वश्या तथा तथा । वणिजो दीक्षणे जाताः संपदोऽपि पदे पदे ॥ ७ ॥
अन्वय-यथा यथा मायां त्यजेत् तथा तथा इयं वश्या। दीक्षणे जाताः वणिजो पदे पदे संपदः अपि (प्राप्नुवन्ति ) ॥७॥
___ अर्थ-(देखिये ! कैंसा अनुठा नियम है कि) जैसे जैसे इस माया को छोड़ा जाता है वैसे वैसे यह छोड़ने वाले के वश में होती जाती है। श्रावक धर्मानुष्ठान के लिए जब इसका त्याग करते हैं तो पद पद पर प्रचुर सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं अर्थात् अनासक्त पुरुष के चरणों में सम्पत्ति निवास करती है।
विवेचन-जैसे अवसर आने पर कुपथ्य आहार बिमारी के रूप में अपन प्रभाव दिखाता है वैसे अशुभ कर्मों से प्राप्त संपत्ति मायाग्रस्त पुरुष का कालोदय होनेपर अवश्य त्याग करती है। कपट से वश में नहीं आती है इसीलिये लक्ष्मी को चंचल कहा गया है।
स्त्रीत्वान्मायास्ति वामांगी योऽस्यावश्यः सदाशयः। त्यक्त्वा तं दासवदूरे भोक्तारमपरं भजेत् ॥ ८॥
अन्वय-माया स्त्रीत्वात् वामांगी अस्ति यः सदाशयः अस्याः वश्यः। तं दासवद् दूरे त्यक्त्वा अपरं भोक्तारं भजेत् ॥ ८॥
अर्थ-क्योंकि माया स्त्री है अतः विपरीत प्रकृति वाली है। जो सज्जन इसका वशवर्ती यानि गुलाम होता है एवं इसका भोग नहीं करता अर्थात् सद्व्यय नहीं करता उसे वह चाकर की तरह छोड़कर अवश्य ही
नबमोऽध्यायाः
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