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अन्वय-मोहात् ज्ञानी न विरमेत् लक्ष्मीः तस्य (शानिनः) एव वैरिणी। अज्ञानव्रतकष्टस्थे सरस्वत्या हि शात्रबम् ॥ १५ ॥
__ अर्थ-जो ज्ञानी मोह से विरक्त नहीं होता है लक्ष्मी उसी से वैर करती है अर्थात् मोह मूढ ज्ञानी के पास वह नहीं जाती। अज्ञान रूप व्रत का कष्ट करते हुए ज्ञानी से सरस्वती की शत्रुता है अर्थात् मिथ्याज्ञान से सरस्वती का विरोध है।
भोगासक्तो न सज्ञानी ज्ञानी तत्त्वाद् विरागवान् । विरुद्धताऽनयोः स्थानात्स्याच्छायातपयोरिव ॥ १६ ॥
अन्वय-सदज्ञानी भोगासक्तः न, तत्त्वाद् ज्ञानी विरागवान् अनयोः छाया तपयोः इव स्थानात् विरूद्धता ॥१६॥
___अर्थ-सम्यक् ज्ञानी भोग प्रिय नही होता क्योंकि वह तात्त्विक रूप से वैरागी होता है। जिस प्रकार छाया एवं धूप का एक स्थान से विरोध होता है अर्थात् जहाँ धूप होगी वहाँ छाया नहीं होगी वैसे ही भोग एवं सम्यक् ज्ञान की स्थिति है अर्थात् जहाँ भोग होगा वहाँ ज्ञान नहीं होगा एवं जहाँ ज्ञान होगा वहाँ भोग नहीं होगा।
धर्मो यथेप्सितं दातुं कर्तुं वा परमेश्वरः।। यत्रावतीर्णो निर्दम्भं स साधुः पूज्यते सुरैः ॥ १७ ॥
अन्वय-धर्मो यथेप्सितं दातुं कर्तुं वा परमेश्वरः। निर्दम्भं यत्रावती! स साधुः सुरैः पूज्यते ॥१७॥
अर्थ-( लक्ष्मी और सरस्वतीका धर्मवान में वास होता है क्योंकि) धर्म परमेश्वर के समान मन वांछित वस्तु को देने अथवा उसका सृजन करने में समर्थ है। निष्कपट भाव से जो साधु उसमें अवतरित होता है अर्थात् उसका आचरण करता है वह देवताओं से पूजा जाता है।
पात्रेऽवतीर्णो देवादि-स्तन्मुखेन प्रजल्पति । तद्भक्तिः पात्रभक्त्यैव साधोधर्मस्थितिस्तथा ॥ १८ ॥
अर्हद्गीता
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