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दशमोऽध्यायः ऐन्द्रज्योतिः प्रकाशाय रागद्वेषजिगीषया । एकत्वभावना विश्वेऽप्यादिष्टा विश्ववेदिभिः ॥ १॥
अन्वय-विश्वे विश्ववेदिभिः रागद्वेषजिगीषया ऐन्द्रज्योतिः . प्रकाशाय एकत्वभावना अपि आदिष्टा ॥१॥
अर्थ-संसार में सर्वज्ञों ने राग द्वेष को जीतने की इच्छा के द्वारा आत्म ज्योति के प्रकाश के लिए एकत्व भावना (समदर्शिता) रखने का भी आदेश दिया है।
शुभाशुभाधनेकत्वं विशेषविषयं पुनः । हेयोपादेयबोधेन प्राकाशीच्छा विमुक्तये ॥२॥
अन्वय-शुभाशुभादि अनेकत्वं पुनः विशेषविषयं हेयोपादेय। बोधेन विमुक्तये इच्छा प्राकाशी ॥२॥
अर्थ-विशेष विशेष विषयों की अपेक्षा से शुभ एवं अशुभ आदि की अनेकता दृष्टिगोचर होती है। त्याज्य एवं ग्राह्य तत्त्व के बोध से भेद ज्ञान से मोक्ष की इच्छा उत्पन्न होती है ऐसा सर्वज्ञ कहते हैं।
विवेचन-विषयों की अपेक्षा अनुसार शुभ और अशुभ दिखायी देता है। संसार के विषयों की अपेक्षा से देखें तो लक्ष्मी शुभ है। सर्व प्रकार के उपभोग के सुख की दाता है किंतु शाश्वत मोक्ष सुख का उत्सुक मुमुक्षु के लिये लक्ष्मी बाधारुप और त्याज्य ही दिखायी देगी। त्याज्य और ग्राह्य के विवेक से आध्यात्मका उदय होता है और उसका विकास केवलज्ञान में पूर्ण होता है। आध्यात्मिकता के प्रथम चरण को स्पर्श कर के आगे अंतिम चरण को महर्षिने दिखाया है।
पूर्वे पृथक्त्ववीचारं शुक्लध्यानांह्रिमामृशेत् । ततोऽप्येकत्ववीचारात् केवलज्ञानमुल्लसेत् ॥ ३॥
अन्वय-पूर्वं पृथक्त्वविचारं शुक्लध्यानहिं आमृशेत् ततः अपि एकत्वविचारात् केवलज्ञानं उल्लसेत् ॥३॥
अर्हद्गीता
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