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जीतने के कारण यह आत्मा वीतराग बनती है एवं देवों में श्रेष्ठता प्राप्त
करती है ॥ २० ॥
यो वीतरागोऽसौ देव - स्तद्वाक्यानुगतो गुरुः । तदाज्ञाराधनं धर्म-स्सोऽयं तत्त्वसमुच्चयः ॥ २१ ॥
अन्वय-यः वीतरागः असौ देवः । तदूवाक्यानुगतः गुरुः । तदाज्ञाराधनं सः धर्मः अयं तत्त्वसमुच्चयः ॥ २१ ॥
अर्थ - जो वीतराग हैं वे ही देव हैं, जो उनकी आज्ञा के वशवर्ती है वे गुरु हैं, उन वीतराग की आज्ञा की आराधना ही धर्म है यह तत्त्वज्ञान का सार है ।
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॥ इति नवमोऽध्यायः ॥
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अर्हद्गीता
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