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संसारमूलं स्त्री तस्याः प्रकृति भोंगभावनम् । तन्मयो यस्तु तस्याधःपातो-न्याय्यः स्त्रिया इव ॥१२॥
अन्वय-स्त्री संसारमूलं तस्याः भोगभावनं प्रकृतिः। यः तु स्त्रिया इव तन्मयो तस्य अधः पातः न्याय्यः ॥ १२॥
अर्थ-स्त्री संसार का मूल है एवं उसका स्वभाव भोगप्रिय है, जो मनुष्य स्त्री की तरह भोगप्रिय होता है उसकी अवनति हो यह नीतिसम्मत है।
वैरं लक्ष्म्याः सरस्वत्या नैतत्मामाणिकं वचः । / ज्ञानधर्मभृतो वश्या लक्ष्मीन जडरागिणी ॥ १३ ॥
अन्वय-लक्ष्म्याः सरस्वत्या वैरं एतत् न प्रामाणिकं वचः लक्ष्मीः जडरागिणी न (सा तु) शानधर्मभृतः वश्या ।।१३।।
अर्थ-लोक में यह प्रचलित है कि लक्ष्मी का सरस्वती के साथ वैर है यह प्रामाणिक उक्ति नहीं है। लक्ष्मी जड़ अज्ञानी को नहीं चाहती है वह तो ज्ञान धर्म युक्त पुरुष के वश में रहती है।
ज्ञानी पापा विरतिभाग यः स वै पुरुषोत्तमः ।
तस्यैव वल्लभा लक्ष्मीः सरस्वत्येव देहभाक् ॥ १४ ॥ ___ अन्वय-यः ज्ञानी पापात् विरतिभाक् सः वै पुरुषोत्तमः देहभाक् सरस्वत्या इव लक्ष्मी तस्यैव वल्लभा ॥१४॥
अर्थ-जो ज्ञानी पाप से विरक्त रहता है वही पुरुषों में उत्तम है जैसे सरस्वती ज्ञान में रमण करती है वैसे ही उन पुरुष रत्न की प्यारी लक्ष्मी भी उनमें ही रमण करती है।
ज्ञानी न विरमेन्मोहालक्ष्मीस्तस्यैव वैरिणी । अज्ञानव्रतकष्टस्थे सरस्वत्या हि शात्रवम् ॥ १५ ॥
नवमोऽध्याय
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