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- अर्थ-इस प्रकार इन प्रमाणों से जिसका उच्छंखल मन धर्म की चाहना नहीं करता है उसके लिए संसार में कोई बंधन नहीं है अर्थात् उसके मन को मर्यादित करने का अथवा संयमनिष्ठ करने का कोई साधन नहीं है।
शुद्धवंशभवे धर्मे गुणारोहोऽपि चार्हति । यदाश्रयान्मार्गणेऽस्य प्रत्ययो लक्ष्यलाभतः॥१४॥
अन्वय-शुद्धवंशभवे धर्मे गुणारोहोऽपि च अर्हति यदाश्रयात् अस्य मार्गणे लक्ष्यलाभतः प्रत्ययः भवति ॥ १४ ॥
अर्थ-शुद्ध वंशोद्भव धर्म में स्थित आत्मा गुणारोहण कर आत्म विकास की ओर बढ़ती है। इस धर्म के अनुसरण से अथवा आश्रय लेने से लक्ष्य की प्राप्ति से धर्म पर विश्वास होता है।
आशिषः स्युश्चिरं जीवेत्याद्या दातरि सञ्जने । शीलात्स्त्रीकष्टमोक्षादिस्तपसाऽपात्रपात्रताम् ॥ १५॥
अन्वय-दातरि सज्जने चिरंजीव इत्याद्या आशिषः स्युः। शीलात्स्त्रीकष्टमोक्षादि तपसा अपात्रपात्रतां (प्राप्नोति)॥१५॥
अर्थ-दानदाता सज्जन को चिरकाल पर्यन्त जीवित रहने की आशिष मिलती है शील के प्रमाण से स्त्री कष्ट से मुक्त होती है एवं तपश्चर्या से अयोग्य को भी योग्यता की प्राप्ति होती है। (ये सब धर्म के प्रमाण है )
दीप्तं ज्योति भवेन्मोहात् शान्तं ज्ञानमयात्मनः । दीप्तादुन्मार्गगमनं शान्ताद्धर्मरूचिश्विरम् ॥१६॥
अन्वय-मोहात् ज्योतिः दीप्तं शानमयात्मनः शान्तं भवेत्। दीप्तात् उन्मार्गगमनं, शान्तात् चिरं धर्मरूचिः ॥ १६ ॥
अर्हद्गीता
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