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सप्तमोऽध्यायः
श्री गौतम उवाच ऐहिकामुष्मिकफलं यथा ज्योतिर्विदो जनाः । जानन्ति तद् ज्ञानधर्म-मार्गाद्वेद्यं कथं प्रभो ॥ १॥
अन्वय-यथा ज्योतिर्विदो जनाः ऐहिकामुष्मिकफललं जानन्ति . तद् शानधर्ममार्गात् प्रभो! कथं वेद्यम् ॥१॥
अर्थ-जिस प्रकार सांसारिक प्राणियों के ग्रहों का अमुक फल है ऐसा ज्योतिषी जान लेते हैं वैसे ही ज्ञान रूपी धर्म मार्ग से यह कैसे जाना जा सकता है कि इसका अमुक फल होगा।
श्री भगवानुवाच अतिचारोऽथ वक्रत्वं ज्योतिर्विद्भिनिषिध्यते । मार्ग एवं ग्रहात्साध्यस्तथैव धार्मिकैरपि ।। २ ॥
अन्वय-अथ ज्योतिर्विद्भिः ग्रहात् अतिचारः वक्रत्वं निषिध्यते एवं तथैव धार्मिकैः अपि मार्गः साध्यः ॥२॥
अर्थ-ज्योतिषी ग्रहों का एक राशि पर भोगफल समाप्त हुए बिना दूसरी राशि पर चले जाने के अतिचारको तथा ग्रहों की वक्रगति को (बुरा बताकर उनका अच्छे फल के लिए निषेध करते हैं वैसे ही धार्मिक लोग भी मर्यादा का उल्लंघन न कर एवं दुराचरण का निषेध कर सन्मार्ग के लक्ष पर आगे बढ़ते हैं। अर्थात् ग्रह मार्गी हो तो कार्य सधता है।
वक्री-जो ग्रह पीछे लौटकर चलता है। अतिचारी-जो ग्रह अपने मार्ग पर सामान्य गति की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से चलकर दूसरी राशि पर पहुँच जाता है।
अर्हद्गीता
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