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अन्वय-आदौ मध्ये अवसाने वा भानां त्रयं त्रयं ज्ञेयं। त्रयेऽपि आयं चन्द्रे चरेत् द्वितीयं भं पुनः स्थिरे ॥ १७॥
अर्थ-द्रेष्काण में २७ नक्षत्रों के आदि के नौ मध्य के नौ व अन्त के नौ के क्रम से सत्ताईस नक्षत्र हुए। नक्षत्रों के आदि के त्रिक में स्थित चन्द्रमा चर माना जाता है मध्य त्रिक् में स्थिर है ।
द्विस्वभावे तृतीयं भमेवं नक्षत्रनिर्णयः । प्रभुत्वान्मनसश्चेन्दोरेवं गम्या मनोगतिः ॥१८॥
अन्वय-तृतीयं भं द्विस्वभावे एवं नक्षत्रनिर्णयः एवं इन्दो। प्रभुत्वात् मनसः मनोगति गम्या ॥१८॥
अर्थ-नक्षत्रों के तीसरे त्रिक में स्थित चन्द्रमा द्वि स्वभाव में चर और स्थिर दोनो जानना चाहिए। इस प्रकार नक्षत्रों से चन्द्रमा का निर्णय होता है। इस प्रकार चन्द्रमा के प्रभुत्व के कारण मनोगति की अवस्था भी स्थिर, चर एवं द्विस्वभावी मानी जाती है।
दुष्टायां मनसो गत्यां ज्ञातायां न शुभां क्रियाम् । कुचातुर्यवान् धीरः श्रेष्ठायां नाशुभां ततः ॥ १९ ।।
अन्वय-दुष्टायां मनसः गत्यां ज्ञातायां शुभां क्रियां न धीरः चातुर्यवान् श्रेष्ठायां कुर्यात् ततः न अशुभां ॥ १९ ॥
अर्थ-इस प्रकार चन्द्रमा की स्थिति अनुसार मन की गति दुष्ट होने पर क्रिया शुभ नहीं होती है। इसलिए चतुर धीर पुरुष श्रेष्ठ स्थिर मनोगति में अर्थात् श्रेष्ठ चन्द्र होने पर कार्य करें उससे अशुभ नहीं होता है
अधर्मे चेत्प्रवर्तेत मनः स्वीयं पुनः पुनः। तदा भावि महद् दुःखं मत्वा तत् धारयेत्ततः ॥ २० ॥
अन्वय-स्वीयं मनः पुनः पुनः चेत् अधर्मे प्रवर्तेत तदा भावि . . महद् दुःखं मत्वा तत् ततः धारयेत् ॥ २० ॥
अर्हद्गीता
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