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अर्थ-जिस प्रकार व्यवहार से काल को तीन प्रकार का कहा जाता है भूत, भावी एवं वर्तमान । वैसे ही एक ही ज्ञानधर्म के तीन भेद बताए गए हैं। वे तीन भेद हैं ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र ।
मननाद्वस्तुनो ज्ञानं श्रद्धानाद्दर्शनं पुनः। विरत्या चरणं तत्त्वादुपयोगैक्यामाहितम् ॥ ८॥
अन्वय-मननात् वस्तुनः ज्ञानं, पुनः श्रद्धानात् दर्शनं, तत्त्वात् विरत्या चरणं उपयोगे ऐक्यं आहितम् ॥८॥ ___अर्थ-सर्व प्रथम मनन से वस्तु का ज्ञान होता है, उस पर दृढ़ निष्ठा होने से दर्शन की प्राप्ति, एवं विरति से चारित्र की उपलब्धि होती है। किन्तु तत्त्व के अबधारण से तीनों में एकता समाई हुई है।
धर्मपुंसो मुखं ज्ञानं हृदयं दर्शनं स्मृतम् । शेषांगानि पाणिपाद-मुख्यानि चरणं परम् ॥९॥
अन्वय-धर्मपुंसः ज्ञानं मुखं दर्शनं हृदयं स्मृतम् शेषांगानि पाणिपादमुख्यानि चरणं परम् ॥९॥
अर्थ-धर्मरूपी पुरुष का ज्ञान ही मुख है, दर्शन उसका हृदय है, और शेष अंग हाथ पाँव आदि चारित्र रूप हैं।
धर्मस्याह्नो मुखं ज्ञानं मध्याह्नस्तस्य दर्शनम् । व्यापार संवृत्तेः संध्या योगश्चरणमुच्यते ॥१०॥
अन्वय-धर्मस्य अह्नो मुखं ज्ञानं, तस्य दर्शनं मध्याह्नः, सन्ध्याव्यापार संवृत्तेः योगः चरणं उच्यते ॥ १०॥
अर्थ-धर्मरूपी दिन का ज्ञान मुख (प्रभात) है, उसका मध्याह्न दर्शन है और संध्या क्रियाओं का संवर से इन सबका योग चारित्र कहा जाता है।
अर्हद्गीता
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