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है। यहां ज्ञान एवं भक्ति की महत्ता बताई गई है पर उन दोनो से उत्पन्न चारित्र श्रेष्ठ है।
ज्ञानं स्यादेकवचने द्वित्वेऽपि ज्ञानदर्शने। ज्ञान-दर्शन-चारित्रैर्धर्मोऽस्ति वचनत्रयी ॥१८॥
अन्वय-एक वचने झानं स्यात् , द्वित्वे ज्ञानदर्शने, ज्ञान दर्शन चारित्रैः धर्मः वचनत्रयी अस्ति ॥१८॥
अर्थ-ज्ञान धर्म का एक वचन है, ज्ञान दर्शन धर्म के द्विवचन है, ज्ञान दर्शन चारित्र से धर्म का बहुवचन सिद्ध होता है। इस प्रकार धर्म में तीनों वचनों का समावेश है ।
उर्ध्वलोके स्थितं ज्ञानमधोलोके च दर्शनम् । चारित्रं मध्यलोकस्थं धर्मस्थं भुवनत्रयम् ॥ १९॥
अन्वय-ज्ञानं उर्ध्वलोके अधोलोके च दर्शनं स्थितं चारित्रं मध्यलोकस्थं भुवनत्रयं धर्मस्थं ॥१९॥
अर्थ-उर्ध्वलोक में ज्ञान है तो अधोलोक में दर्शन तथा मध्य लोक में चारित्र स्थित है, इस प्रकार तीनों लोक धर्म में स्थित है ।
संध्याभक्तिर्दिनं ज्ञानं यामिनी चरणं स्मृतम् । धर्मध्यानादृते सर्व-व्यापारभरसंवरात् ॥ २० ॥
अन्वय-संवरात् संध्या भक्ति ज्ञान दिनं चरणं यामिनी स्मृतम्। धर्मध्यानात् ऋते सर्व व्यापार भरः ॥२०॥
अर्थ-भक्ति संध्या है, ज्ञान दिन है एवं चारित्र रात्रि है। यदि इनमें संवर स्वरूप धर्म ध्यान नहीं किया जाय तो ये सब आस्रव का कारण
होगी।
व्यापार भर अर्थात् कमों को भरने वाला आस्रव ।
षष्ठोऽध्यायः
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