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दानान्निदानालक्ष्मीणां दानावरणसंक्षयः ।। येन विश्वप्रबोधार्थ दातात्मा जायते स्वतः ॥ ८॥
अन्वय-निदानात् लक्ष्मीणां दानात् दानावरण संक्षयः येन दातात्मा स्वतः विश्वप्रबोधार्थ जायते ॥ ८ ॥
अर्थ-परख पूर्वक पात्रानुसार लक्ष्मी का दान करने के फलस्वरूप दानावरणीय कर्म का क्षय होता है जिससे दातात्मा अपने आप विश्व के प्रबोध के लिए हो जाता है-विश्व में प्रसिद्ध हो जाता है। अर्थात् दानभावना से दानी संसार में अनुकरणीय हो जाता है।
वैयावृत्येऽन्नपानाद्यै-गुरूचैत्यादिषु ध्रुवम् । / आत्मनो जायते सर्व-लाभभोगवृत्तिक्षयः ॥ ९ ॥
अन्वय-गुरुचैत्यादिषु अन्नपानाद्यैः वैयावृत्ये ध्रुवं आत्मनः सर्व-लाभ-भोगवृत्तिक्षयः (च) जायते ॥९॥
अर्थ-गुरु की अन्नपान आदि से सेवा एवं मंदिरों की सुव्यवस्था करने पर आत्मा के सभी लाभान्तराय तथा भोगान्तराय कर्मों का क्षय हो जाता है।
तेन सर्वार्थबोधस्य लाभश्वानन्दभोगयुक् । अनन्तः स्याद्यथा बीजं फललाभो विनिश्चयात् ॥ १० ॥
अन्वय-तेन सर्वार्थबोधस्य आनन्द-भोग-युक् लाभः, यथा बीजं अनन्तः स्यात् विनिश्चयात् फल लाभः ।। १०॥
अर्थ-उससे सभी पदार्थों (विषयों) के ज्ञान का लाभ और आनन्द एवं भोग युक्त बनता है जिस प्रकार बीज अनन्त होने पर निश्चय ही फल लाभ होता है। फल लाभ की प्राप्ति का निश्चय होने पर बीज अनन्त होता है।
अर्हद्गीता
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